Wednesday, October 29, 2008

यह दीप अकेला


अज्ञेय की यह कविता वैदिक काल के जुझारू मानव के संघर्ष की याद दिलाती है जो आत्मविशवास से भरपूर मगर प्रकृति पूजक और उसका सहचर है ....इसलिए जब भी सतत विकास की बात होगी तो छायावाद के मानवतावादी तेवर के साथ प्रकृति-मानव के निर्मल रिश्तो के समर्थक अज्ञेय का अलग ही व्यक्तित्व सामने आता है । ज्योति पर्व के मौके पर अज्ञेय की कविता "यह दीप अकेला " (कविता पर क्लीक करके बारे फॉण्ट साइज़ मेंआनंद लें )ज्यादा मौजू हो जाती है....और आतिशबाजी के शोर से ज्यादा दीपक के प्रशांत आलोक को कही बेहतर तरीके से पुष्ट करती है.

Thursday, October 9, 2008

मानिला के कई रंग


पहले आपने सफर का ब्यौरा जाना ...और अब देखिये मानिला की तसवीरें। ये छवियाँ मोबाइल से कैद की गई हैं...jisme पर्वतीय anchal ke kai rang हैं.
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Wednesday, October 8, 2008

मानिला अर्थात् मन को मोहने वाली

मानिला उत्तराखण्ड (भूतपूर्व उत्तरांचल) के अल्मोड़ा जिले का एक पर्वतीय स्थल है। जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क से ३-४ घंटे के बस के सफर से यहाँ pahuncha जाता है। रामनगर जिमकार्बेट नेशनल पार्क की तराई में ही बसा shahar है जहाँ तक रेल जाती है। चाहे तो सीधा दिल्ली-मानिला की रोडवेज बस लेकर सीधा तकरीबन १२ घंटे के सफर से पहुँचे या फिर दिल्ली-रामनगर की गाड़ी पकड़कर वहाँ से उत्तराखण्ड की स्टेट बस सर्विस से पहुँचेए दोनों ही ऑप्शन है। दिल्ली-मानिला की केवल एक बस होने की वजह से यह विकल्प कम ही अपनाने योग्य रहता है।

खै़र हम यानी मैं और मेरे मामा की सुपुत्री हेमा शाम को चार बजे घर से रवाना हो गए ताकि ६ बजे वाली सीधी बस ले सके। गढ़मुक्तेश्वर, हापुड़, मुरादाबाद गजरौला काशीपुर रामनगर तक के बड़े स्टॉप हैं। बस रात्रि के भोजन के लिए गजरौला के मेला होटल में रूकती है। उसके बार काशीपुर की ओर रवाना होती है। काशीपुर में बस डीजल भरवाने और बस की तकनीकी जांच के लिए रूकती हैं। काशीपुर से लगभग दो घंटे के सफर के बाद हम रामनगर पहँचे। रामनगर उत्तराखण्ड का वह हिस्सा है जिसे भाबर के नाम से जाना जाता है (भूगोल के अध्येता बेहतर जानते होंगे )। काफी उपजाऊ इस इलाके में आधुनिक कृषि पद्धतियों से काम लिया जाता है। बैलों के लिए यहाँ सालाना हाट लगते हैं जिसमें दूरदराज के पहाड़ी इलाकों से लोग मीलों पैदल चल कर अपने पशुओं के व्यापार के लिए आते हैं।

bas ने तकरीबन आधे घंटे का ब्रेक लिया और फिर वह पहाड़ों के बीच दाखिल होना शुरू कर देती है। सितम्बर के आखिरी हफ्ते की इस यात्रा के दौराना चुनावी सरगर्मियाँ भी जोरों पर थी। उम्मीदवारों ने दिल्ली में बसे पहाड़ी प्रवासियों के लिए गाड़ियाँ आरक्षित कर रखी थीं । २० सितंबर २००८ शाम को निकले हुए हम सुबह ६ बजे मानिला के बस स्टॉप रथखाल पर पहुँचे। रथखाल मेरे ननिहाल और ददिहाल का उभयनिष्ठ बाजार है। वहाँ २ घंटे पैदल मार्च करते हुए हम लोग मामा के गाँव सीमा पहँचे।


पंचायती राज के चुनावों के लिए तीन पदो कें लिए मतदान होने थे- बीडीसी मेंबर, ग्राम प्रधान और उपप्रधान । इन चुनावों में एक बात यह देखने को मिली की स्थानीय निर्दलीय उम्मीदवारों के अलावा बीजेपी और कांग्रेस के टिकट पर खड़े हुए उम्मीदवारों को भी अपने स्वनिर्मित चुनाव चिन्ह क्रमश: कलम दवात और उगता हुआ सूरज पर चुनाव में खड़े थे। चूंकि मामा भी चुनाव में खड़े थे इसलिए उनके घर पर पार्टी के कार्यकर्ताओं का आना जाना लगा हुआ था और घर की दीवारें गाँव के सेन्ट्रल लोकेशन में होने की वजह से सार्वजनिक इश्तहार पट चुकी थी । रात को वहीँ आराम किया । दूसरे दिन मम्मी के चाचा-चाची के घर निकासण पहँचें। उनका गाँव से अलग अकेला घर है । उसी sham को वापिस सीमा आ गए।


दूसरे दिन चुनाव था। दिल्ली में चुनाव के प्रति जितनी उदासीनता होती है, उतनी ही वहाँ उत्सुकता और मेले-सा माहौल रहता है। औरतें पूरी तरह बन-ठन कर परंपरागत आभुषरों पहनकर अपना वोट डालने जाती है। हेमा को अपना वोट डालना था । पोलिंग बूथ रथखाल के रास्ते में पड़ने वाले स्कूल जगतुखाल में था। हमारी योजना हेमा के वोट डालने के बाद मेरे गाँव तोलबुधानी जाने की थी। । ११ बजे हम पोलिंग बूथ के लिए रवाना हुए। सुबह हमने पार्टी के कार्यकताओं के लिए नाश्ता बनाकर भिजवाया था जिसे वो लंच में खा रहे थे । स्कूल मुख्य पगडंडी से ऊपर है। इसलिए स्कूल के ओर जाने वाली पगडंडी के रास्ते में उम्मीदवारों ने अपने स्टॉल लगा रखे थे और वो स्टॉल एक दरी बिछाकर मतदाता सूची में मिलाने करने के बहाने वोटरों का ब्रेनवॉश करने के लिए था। कोई कोई तो वैसे ही पहाड़ की घसियाली जमीन पर बैठे हुए थे। हेमा अपना वोट डालने के लिए गई और मैं पोलिगं बूथ से २५-३० कदम नीचे ढलान पर उसका इंतजार कर रही थी। बीच में लंच ब्रेक की वजह से हमें रूकना पड़ा । २ हमें वहीं बज गए थे।


वोट डालने के बाद हम रथखाल गए । वहाँ सर्विस रोड पर दिल्ली के वोटरों के कन्वेंस जो प्रत्याशियों द्वारा प्रायोजित थे, कतार में खड़े थे। जोरों की भूख भी लग रही थी। पापा ने दिल्ली से दादी को फोन कर दिया था कि हम आज अपने घर आएंगें। सोचा अगर रथखाल में किसी दुकान पर पेट पूजा करने के लिए ठहरे तो दादी के पास पहँचते रात हो जाएगी। एक बिस्किट पैकेट लिया और रास्ते में खाते-खाते रथखाल से प्र्रस्थान किया। रास्ते में बारिश भी शुरू हो गई, पर हम चलते गए। बारिश मूसलाधार न होकर केवल फुहार थी, इसलिए ज्यादा खीझ नहीं हुई। मौसम तो बरसात की असर की वजह से खुशगवार था ही, गर्मियों में पेड़ो से कटाई से नंगे दिखने वाले पहाड़ भी घास और स्थानीय वनस्पतियों की बरसाती पैदावार से हरे-भरे हो गए थें। आलम यह था कि गावों और खेतों के बीच के रास्ते भी टूट रहे थे और पगडंडियाँ भी घास उगने की वजह से खोने - सी लगी थी। इस बरसाती घास को काटकर पुआल बना लिए जाते हैं और उनका जानवरों के लिए बफर स्टॉक रख लेते हैं।

४ बजे दादी के घर पहँचे। वहाँ एक किलोमीटर नीचे राधार गाँव है..... और उससे आधा किमी नीचे बुआंडी को माध्यमिक विद्यालय ... मेरे गाँव पोलिंग बूथ वह स्कूल था। खैर हम ५ बजे वहाँ भी पहँुच गए। बस का इस्तेमाल तो बस दिल्ली से रथखाल आने-जाने में किया। बाकी रास्ते तो पैरों से ही नापने पड़े। ददिहाल भी रथखाल से पाँच मील की उतराई पर है। ददिहाल-रथखाल-ननिहाल एक पहाड़ का समबाहु त्रिभुज बनाते हैं, जिसके शीर्ष पर रथखाल है। इस त्रिभुज की कल्पना करने पर चढाई़-उतराई के समीकरणों का अंदाजा हो जाएगा ।

दूसरी सुबह हम मानिला मंदिर के लिए रवाना हुए । मेरी मानिला डानी तेरी बलाई ल्यूला, तु भगवती छै भवानी तेरी बलाई ल्यूला (मेरी मानिला के ऊँचाई पर बसे घने जंगल मै तुम्हारी बलाएँ लेता हूँ ) जैसा गीत हो देवभूमि के इस प्रदेश में प्रकृति-तीर्थ के द्वय को बखूबी समझा देता है। मानिला देवदार, फर, स्प्रूस (चीड़ की बात नहीं करूँगी...वह पहाड़ यूकेलिप्टस है) के शंकुल वृक्षों से ढका प्रदेश है। यहाँ भगवती के दो मंदिर हैं- तल्ला (नीचाई) मानिला और मल्ला ( ऊँचाई) मानिला। जनश्रुति है कि पहले केवल तल्ला मानिला का ही मंदिर था। गढ़वाल से कुछ चोर मंदिर में देवी की मूर्ति को चुराने के लिए आए। उनसे पूरी मूर्ति उठाई नहीं गई । वो मूर्ति का केवल एक हाथ काटकर ले जाने लगे। कहते हैं उस वक्त देवी ने चिल्लाई भी थी। उसकी चीख को लोगों ने भी सुना था। रास्ते देवी का कटा हुआ हाथ ले जाते समय इतना भारी हो गया कि उन चोरों ने विश्राम करने के लिए उसे जमीन पर रख दिया। उसके बाद वह हाथ वहीं जम गया । कालांतर में वहाँ पर मल्ला मानिला का मंदिर बनाया गया। तल्ला मानिला के मंदिर में देवी की सप्तभुजा वाली प्रतिमा है और मल्ला मानिला के मंदिर में हाथ की प्रस्तर प्रतिकृति।

मानिला में सरकारी डाक बंगले और गेस्टहाउस भी हैं। विदेशी पर्यटकों की भी आवाजाही रहती है। मल्ला मानिला के परिसर में एक संस्कृत विद्यालय और दूरदर्शन का रिले सेंटर है। रथखाल से आगे तल्ला मानिला का मंदिर का बस स्टॉप है और वहीं एक रास्ता मानिला इंटर कालेज और महाविद्यालय की ओर जाता है। पयर्टन मानचित्र पर मानिला की उपस्थिति दर्ज हो चुकी है। राज्य सरकार ने पर्यटन विकास की योजनाओं को लागू करने के लिए अनुदान भी आवंटित किया है। कई गावों में बिजली नहीं पहुँची है और जहाँ पहुँची है वहाँ मीटर उपभोक्ताओं की संख्या कम है। सौभाग्य से ननिहाल और ददिहाल में बिजली है। दोनों मंदिरों के दर्शन करने के बाद वापिस मामा के घर आए।

gale दिन हमें दिल्ली वापिस आना था, पर चुनाव के कई चरण बाकी होने की वजह से रोडवेज की बसें कम हो गई थी और स्टेट सर्विस बसें चुनाव ड्यूटी बजा रही थी। मामा ने दिल्ली -मानिला में सीटे बुक करने के लिए फोन किया...पता चला बस आई नहीं है। फिर हम दूसरे रास्ते से आए। इस रास्ते के साथ-साथ नदी भी चलती है और दिल्ली-गनाई वाली बस सेवा से नदी की अविरल धाराओं के का लुत्फ़ उठाकर अपने ठिकाने वापिस आ गए।

Monday, October 6, 2008

चुनावी बहस - लोकतंत्र की खास पहचान

राजदीप सरदेसाई
प्रमुख संपादक , सीएनएन-आईबीएन
Friday, October 03, 2008 09:19 [IST]


अमेरिका में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बराक ओबामा और जॉन मैक्केन के मध्य हाल ही में बहस का पहला दौर निपटा है। उपराष्ट्रपति पद की रिपब्लिकन उम्मीदवार साराह पालेन अपने डेमोकेट्र प्रतिद्वंद्वी जोए बिडेन का सामना करने के लिए खुद को तैयार कर रही हैं।


ऐसी बहस अमेरिकी लोकतंत्र की खास पहचान है, जो उम्मीदवारों को एक-दूसरे के व्यक्तित्व और नीतिगत मसलों को लेकर आमने-सामने चुनौती देने और मुकाबला करने का अवसर प्रदान करती है।


यह बहस चुनावी मुहिम का अहम मुकाम होती है, जहां ग्लेडिएटर जैसा टेलीविजन एरीना देश को उम्मीदवारों को तौलने का मौका देता है। तो यदि अमेरिका ऐसा कर सकता है तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र यानी हमारे देश में ऐसी ही बहस क्यों नहीं हो सकती, वह भी विशेषकर चौबीसों घंटे चलने वाले खबरिया चैनलों के इस दौर में, जो स्टूडियो में बहस के जरिए फलते-फूलते हैं?


वर्ष 2004 के आम चुनाव से कुछ महीने पहले मैंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी और विपक्ष की नेता सोनिया गांधी को पत्र लिखकर 'बिग फाइट' के लिए आमंत्रित किया था। हमारा प्रयास इसे सबसे जोरदार बहस बनाने का था, हमारी इलेक्शन प्रोग्रामिंग का ग्रांड फिनाले, लेकिन दोनों नेताओं ने इसमें अपनी असमर्थता जता दी और हमें कपिल सिब्बल और अरुण जेटली को बुलाना पड़ा। हालांकि दोनों के बीच अच्छी बहस हुई और उन्होंने अपनी-अपनी बात दमदार तरीके से रखी, लेकिन फिर भी जैसा हम चाह रहे थे, वैसा नहीं हो पाया।


संभवत: हमने कुछ ज्यादा ही उम्मीदें पाल ली थीं। वाजपेयी टेलीविजन के दौर से पहले के राजनेता हैं, भले ही वे अपने जबर्दस्त उद्बोधनों या भाषणों के जरिए संसद या रामलीला मैदान में तालियां बटोर लें, लेकिन बात के बीच-बीच में उनकी लंबी खामोशी टेलीविजन के हिसाब से सूट नहीं करती। जहां तक श्रीमती गांधी का सवाल है तो उन्हें राजनीति में आए दस साल से ज्यादा वक्त हो चुका है लेकिन उन्होंने अब तक बमुश्किल तीन-चार ही साक्षात्कार दिए होंगे, इनमें से ज्यादातर सावधानीपूवक तैयार किए गए और ज्यादातर उनसे सीधे-सादे और रूटीन सवाल ही पूछे गए।


प्रधानमंत्री बनने की चाहत रखने वाले हमारे दूसरे नेता भी अलग नहीं हैं। मिसाल के तौर पर मायावती गंभीर परिचर्चाओं में खुद को व्यक्त करने के बजाय प्रेस कॉन्फ्रेंसों में पत्रकारों पर भड़कने को तरजीह देती हैं। लालकृष्ण आडवाणी, संभवत: अपनी पत्रकारिता की पृष्ठभूमि की वजह से हमेशा मुश्किल सवालों का जवाब देना चाहते हैं, लेकिन बहस के प्रारूप में नहीं।


प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को कैमरे पर आने में संकोच होता है। उन्हें इस पद पर रहते हुए पांच साल होने जा रहे हैं, लेकिन उन्होंने वास्तव में एक भी उपयुक्त साक्षात्कार नहीं दिया। कांग्रेस के 'युवराज' राहुल गांधी तो और भी ज्यादा संकोची हैं। अपनी शादी की योजना के संबंध में दिए गए बयान या पोटा जैसे कानून पर उनके वक्तव्य भले ही सुर्खियां बटोर लें, लेकिन वे कदाचित ही विशुद्ध राजनीतिक संवाद का विकल्प हो सकते हैं।


आडवाणी की तरह नरेंद्र मोदी भी साक्षात्कार देने में माहिर हैं, लेकिन वे भी ऐसे सवाल सुनना पसंद नहीं करते, जिनसे उन्हें परेशानी हो। टेलीविजन पर शरद पवार ऐसे बोलते हैं कि अनिद्रा की बीमारी से ग्रसित लोगों को भी नींद आ जाए, जबकि मुलायम सिंह तो कुछ शब्दों को ऐसे बोलते हैं कि उसकी तुलना बुदबुदाने वाले एच.डी. देवेगौड़ा से ही की जा सकती है। लालू यादव ही ऐसे नेता हैं कि जिनके बारे में कहा जा सकता है वे स्वाभाविक तौर पर टीवी के लिए ही बने हैं। हालांकि अब उनकी वह चुटीली और विनोदप्रिय शैली भी कुछ मंद पड़ती जा रही है, जिसने कभी उन्हें 'सितारा' हैसियत दिलाई थी।


आखिर क्यों हमारे शीर्ष स्तर के नेता टीवी पर सवाल-जवाब के विचार से ही असहज हो जाते हैं? कुछ हद तक यह हमारे सामंती और अपारदर्शी राजनीतिक तंत्र को प्रतिबिंबित करता है जो खुले मंच पर नीतिगत मसलों पर बोलना जरूरी नहीं समझता। दुर्भाग्य से अमेरिका से उलट भारतीय संदर्भ में राजनीतिक तौर पर जीतने लायक चुनावी मुहिम का टेलीविजन पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने से ज्यादा संबंध नहीं है। जहां जाति और वंश के आधार पर चुनावी हार-जीत का फैसला होता हो, वहां संप्रेषण कौशल ज्यादा मायने नहीं रखता। हमारा राजनीतिक तंत्र उस तरह के संप्रेषण कौशल की मांग नहीं करता, जिसने ओबामा को राष्ट्रपति की होड़ में सबसे आगे कर दिया।


इसके विपरीत मायावती ने पिछले साल उत्तरप्रदेश विधानसभा की अपनी चुनावी मुहिम के दौरान मीडिया और विशेषकर टेलीविजन से दूरी बनाए रखी और चुनावों में जबर्दस्त जीत हासिल की। उनके परंपरागत वोट बैंक को चुनाव में बसपा के नीले हाथी पर मोहर लगाने से पहले अपनी 'बहनजी' को टीवी पर देखने की जरूरत नहीं थी।


एक तरह से भारतीय चुनावी राजनीति ने टेलीविजन की सीमित ताकत को परिभाषित किया है। जहां कोई भावपूर्ण टीवी बहस शहरी मध्य-वर्ग के दर्शकों के एक वर्ग को उत्तेजित कर सकती है, लेकिन यह ज्यादातर मतदाताओं तक नहीं पहुंच सकती, जिनमें से कई लोग राजनीतिक तर्क-वितर्क सुनने के बजाय अपना पसंदीदा सीरियल देखेंगे।


इसके अलावा, इस बहुभाषी देश में टेलीविजन पर जबर्दस्त तरीके से मौजूदगी दर्ज कराकर राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव छोड़ना मुश्किल है। मिसाल के तौर पर क्या त्रिचि में कोई तमिलभाषी दर्शक वास्तव में लालू यादव के साथ भी खुद को जोड़ सकता है? जैसे टेलीविजन खुद स्थानीय हो गया है, इसके कंटेंट पर भी ज्यादातर स्थानीयता हावी है, इसलिए टेलीविजन के जरिए 'राष्ट्रीय' नेता के उभरने की ज्यादा गुंजाइश नहीं होती।


इसके बावजूद भले ही टेलीविजन साउंटबाइट्स आपको वोट न दिला सकें, लेकिन वे गपशप करने वाले में लोगों की राय को कुछ हद तक प्रभावित जरूर कर सकता है। मिसाल के तौर पर आतंकवाद के संबंध में ज्यादातर बहस टेलीविजन स्टूडियोज में ही हुई, जहां विपक्ष की 'पोटा वापस लाओ' की मुहिम ने संप्रग सरकार को बचाव की मुद्रा में ला दिया। बहरहाल, भविष्य पर निगाह रखने वाले राजनेताओं को टेलीविजन क्षमताओं को संवारना होगा। यह भले ही उन्हें मास लीडर न बनाए, लेकिन उन्हें ओपिनियन लीडर बनने में जरूर मददगार होगी।