Sunday, December 28, 2008

बांग्लादेश में एक लाख हिजडों को मिला मताधिकार

ढाका। बांग्लादेश में सोमवार को हो रहे आम चुनावों में पहली बार देश के एक लाख से ज्यादा हिजडों को वोट डालने का अधिकार मिला है । बांग्लादेश के चुनाव आयोग ने जन्म से या दुर्घटनावश हिजडा हो गए लोगों को वोट डालने का हक दिया है। जबकि विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश भारत में भी हिजडों को नही प्राप्त है। (वार्ता, हिंदुस्तान २९ दिसम्बर, 2008)

क्या यह संसार के सबसे बड़े गणतंत्र के लिए शर्मनाक नही है की किन्नर मताधिकार से वंचित हैं....वो भी उस देश में जहाँ शबनम मौसी जैसे उदाहरण भी मौजूद है....वो चुनाव में खड़े हो सकते है....जनसमर्थन हासिल कर विधानसभाओं में पहुँच सकते हैं...पर नामांकन प्रक्रिया में हलफनामा देने के दौरान या मतदाता परिचय पत्र में उन्हें महिला या पुरूष के ' जेंडर' की श्रेणी में ख़ुद को रखना पड़ता है....क्या हम उन्हीं बगैर स्त्री-पुरूष के लिंग-भेद के बिना स्वीकार नही कर सकते?

Friday, December 26, 2008

क्या कह के गया था शायर वो सयाना

इब्ने-मरियम हुआ करे कोई,
मेरे दर्द की दवा करे कोई
इब्ने-मरियम यानी मरियम का बेटा- ईसा मसीह को संबोधित करने वाले गालिब उर्दू के कबीर कहे जा सकते है जिन्होंने दैरो -हरम को नही बख्शा और आजीवन एक गैर-मजहबी इन्सान के तौर पर जाने गए । 'इमां मुझे रोके है , तो खेंचे है मुझे कुफ्र काबा मेरे पीछे है, कलीसा मेरे आगे' के जरिये मजहबी कट्टरता की मुखालफत करने वाले ग़ालिब की कलम की इज्ज़त ना उनके ज़माने में कभी हुई और वर्तमान में भी सरकारी उदासीनता का आलम यह है की उनके मरने के बाद भी इस अजीमुशान शायर के मज़ार के इन्तेजामत देखने वाले आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के अफसरान को ने इसकी सुध नही ली है।

गालिब का जन्म आगरा में 27 दिसंबर 1869 को हुआ था। इसी के ध्यान में रखकर मिर्जा गालिब एकेडमी द्वारा हर साल 27 दिसंबर को समारोह आयोजित किए जाते हैं। कूचा बल्लीमारान में ग़ालिब की मजार है. दिवसों पर बयानबाजी करने वाले इस मुल्क में उनकी जन्मदिन की सालगिरह पर उनकी मजार पर कुछ खास कार्यक्रम आयोजित नही किए गए . यद्यपि गालिब के नाम पर न जाने कितनी सड़कों के नाम रखे गए, फिल्में, सीरियल व डाक्यूमेंट्री बनी होंगी। कितने लोगों ने उनके अदब पर शोध प्रबंध लिखे होंगे. उन्ही के अल्फाजों में कहे तो ' मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों न ग़रके दरिया न कभी जनाजा उठता, न कहीं मजार होता '.

उर्दू अदब में गालिब का मुकाम हिन्दी के प्रेमचंद से किसी तरह कमतर नही है..जिस प्रकार लोगो ने देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता संतति पड़ने के लिए हिन्दी सीखी उसी तरह ग़ालिब की शीरी मगर मानीखेज गजलो, नज्मों ने अवाम में उर्दू सीखने का जज्बा पैदा किया. ज़िन्दगी के हर पहलू पर पर लिखी गई ग़ालिब की शायरी में फल्सफियाना अंदाज़ तो है ही, पारंपरिक ग़ज़ल की रवायत हुस्न-ओ-इश्क को भी उन्होंने बड़ी शिद्दत से अपनी शायरी में पेश किया है। ग़ालिब की शायरी की बिना उर्दू का कोई भी मुशायरा तो अधूरा है ही, हिन्दुस्तानी फिल्मों के गानों को भी ग़ालिब की शायरी की दरकार है.

बस एक न्यू इयर चाहिए हैप्पी होने के लिए

ग्रेगरियन कैलेंडर के मुताबिक साल २००८ अब से चंद दिनों के बाद अलविदा कहने वाला है और तमाम देशवासी इसे पूरे हर्षौल्लास से मनायेगे....चाहे २६/११ की स्मृतियाँ अभी धुंधली नही हुई हो....हो भी नही सकती ....सियासत के हलकों में पाकिस्तान के साथ जंग छिड़ने के कयास लगाये जा रहे हैं...दोनों ही देशों के रक्षा अधिकारी सामरिक शक्ति की नाप-तोल कर रहे हैं....इसके उलट आमिर खान ने 'रब ने बना दी जोड़ी ' को 'गजिनी' से टक्कर दी है...मीडिया इसे किंग खान बनाम मिस्टर परफेक्शनिस्ट के रूप में भुना रहा है.....३१ की सर्द रात को कई लोग नए साल के इंतज़ार में जागेंगे....और कई लोग ऐसे भी होंगे की वो इसलिए नही सो सकते की उनके पास रैन-बसेरे नही हैं...सर छुपाने की जगह है....तो कपकंपाती सर्दी को मात देने के लिए पर्याप्त रूप से गर्म कपड़े नही हैं। जिनको नए साल का इंतज़ार है....वो १ तारीख को नए संकल्पों/ रेसोलुशन करते हुए पुराने ढर्रे पर लौट आयेंगे और जिनके लिए सभी दिन एक सामान है, जिनमें तथाकथित बुद्धिजीवी भी होंगे....वो इसे सांस्कृतिक उद्योग का स्टंट मानकर गरियांगे और गरीबों की वही आवाज़ होगी ...जो यह कहेगी....ये सब अमीरों के चोंचले हैं.....हमें तो वही दाल-रोटी खानी है।
खैर तमाम विडंबनाओं के बावजूद नयापन सभी को अच्छा लगता है.....प्रकृति का श्रृंगार न कर सकेंगे बासी फूल की बतर्ज़ कम से कम १ दिन तो लोग नए साल का खैर कदम करते हुए इसी बहाने मुस्कुराएंगे...बस एक सबब चाहिए खुश होने के लिए...चलिए नया साल ही सही!

2008 is going 2 finish

Now, we need to face 2009

There may be risks involved

We may need to face roadblocks

So stay alert


Share time with friends

Jump over obstacles

With care And caution

Face challenges

Remember to laugh

Cooperate

Discover

Make new friends
Above all...be ready for adventure
Stick together
And you will be able to go far

Very far.....

Well, not quite that far....

Always take time to smell the flowers
Don't forget to relax and enjoy

And dont forget those who likes u very much.
Advance New Year-2009 wishes

Thursday, December 25, 2008

कृष्ण का प्रतिबिम्ब क्राईस्ट

कृष्ण और येशु दोनों अवतारी पुरषों के जीवन में अद्भुत समानता मिलती है....कृष्ण का जन्म जहाँ कारागार में होता है...वहीं येशु जेरुशलम के एक अस्तबल में पैदा होते है....कृष्ण अगर गोपालक हैं जीसस को गड़रियों का ईश्वर कहा गया। वासुदेव पुत्र कृष्ण को देवकी के वातसल्य से उतना याद नही किया जाता जितना यशोदा के आँचल में खेलने वाले बालक के रूप में बाललीला याद की जाती है. akaran ही सूरदास ने द्वारकापति से अधिक नंदलाल को महत्व नही दिया है।
येशु के बारे में भी प्रचलित है कि वो ईश्वर का बेटा है और पैगम्बर है और मरियम से उसका सम्बन्ध यशोदा-नंदन से किसी भांति कम नही है। येशु को जब सूली पर चढाया गया तो वो कहते है '' हे ईश्वर इन्हें क्षमा करना ...क्योंकि ये नही जानते ये क्या कर रहे है ''...इसी तरह कृष्ण के तलवे में जब जरा व्याध का तीर चुभता है....और वो उनकी मृत्यु का कारण भी बनता है तो वो उसे स्वीकारते हुए उसे क्षमा कर देते है क्योंकि वह पूर्व जन्म का बाली होता है....जिसका रामावतार में कृष्ण ने वध किया था।


और अंत में शिशुओं की भांति निष्कपट मनन की कामना करते हुए येशु कहते हैं स्वर्ग का राज्य उन्ही को मिलेगा जिनका हृदय बच्चो की तरह निर्मल है...और ऐसे में तमिल कवि तिरुवल्लुवर का यह कथन shahaj hi याद आता है....वंशी मधुर है, वीणा मधुर है...ऐसा वही कहते हैं जिन्होंने शिशु की तोतली बोली का रस चखा हो।

Tuesday, December 23, 2008

राम मिलाये जोड़ी उर्फ़ रब ने बना दी जोड़ी

तानी पार्टनर के दिल को जितने की कवायद के इर्द गिर्द घूमती 'रब ने बना दी जोड़ी' फिल्म कई युवाओं को बहुतों को स्त्री की समर्थ फिल्म लगी होगी पर शुरू से अंत तक सूरी -राज- सूरी के इतिवृत्त में फिल्म ख़त्म हो गई ....तानी के पास चुनाव का अधिकार न पहले था, न बाद में । सूरी को तानी की संजीदगी पसंद नही और पुरानी चुलबुली तानी को वापस पाने की जिद में वो राज के मसखरे बिंदास शख्सियत में तब्दील हो जाता है....तो राम मिलाये जोरी, एक अँधा एक कोढ़ी बतर्ज़ बेमेल विवाह में एक तरफा प्यार इब्तिदा से इन्तहा तक हावी रहता है....जब तानी को सूरी का विकल्प मिलता है....तो राज उसके साथ भागने को राज़ी नही क्योंकि वो तो सूरी है....और तानी को सुरिंदर साहनी को ही पसंद करना होगा (विवाह संस्था की प्रतिबध्दता को भी तो कायम रखना है )...इसी के चलते सूरी के अहसानों के (.....इसे सूरी के प्यार से भी रिप्लेस किया जा सकता है ) बोझ की मारी तानी को सूरी में रब दिखाया जाता है ....और रब का मतलब सर्वस्व होना है.....पर जब सूरी को तानी में रब दिखा तो वह तो तानी पर सर्वस्व न्यौछावर नही कर सका यानी सूरी के मेल इगो के सामने राज़ की सहजता को नही त्याग सका।

अनिल कपूर की 'वो साथ दिन' और सलमान खान की 'हम दिल दे चुके सनम ' में भले ही पति और प्रेमी दो जुदा व्यक्ति हो पर ट्रीटमेंट एक ही है नायिका/एक विवाहिता पति को को नही छोड़ सकती । 'रब ने बना दी जोड़ी' में भले ही प्रेमी और पति एक हो पर नायिका को पति गैर- बराबरी वाले रूप को ही चुनना है....पति के दोस्ताना और प्रेमी रूप का विकल्प उसके लिए नही है, पर यहाँ पर समाज के पुरुषों का एक रूप वह भी दिखता है, जिसमे भले ही लड़का कैसा भी , बीवी उसे हूर की परी ही चाहिए....वो भी सशर्त सुंदर, सुशील , घरेलु (...वैवाहिक विज्ञापनों की भाषा में आम है )... स्त्री विमर्श पर पच्चासो किताबों को चाट जाने वाले एक सहपाठी का भी यही मानना है की पुरुषों की आवाज़ और महिलाओं की सूरत देखी जाती है।



एक मजेदार बात यह है की जहाँ फिल्म में राज़ या तानी एक दुसरे को मोटर बाईक की सैर कराते हुए नज़र आते हैं ....वही फिल्म के टीवी प्रोमोस में सूरी को तानी को मोटर बाईक पर ले जाते हुए दिखाया गया...ये शायद सूरी का एक सपना भी था जिसमे तानी सूरी की अनुगामिनी नज़र आती हो। इसमें कोई दो राय नही है की यह किंग खान की पैसा वसूल फिल्म है....और इस साल की मेगा हिट मूवी साबित हो।

Sunday, December 21, 2008

न दर्शकों की डिमांड, न मीडिया की सप्लाई


आईपी कॉलेज में 20 दिसम्बर 2008 को 10th Meet The Media, वार्षिक समारोह के अवसर पर "लाइट, कैमरा, एक्शन- सेंस और सेंसेशन " विषय पर आयोजित सेमिनार में विनोद दुआ (टीवी पत्रकार , NDTVइंडिया), कविता चौधरी (निर्माता-निर्देशक )लिलेट दूबे (फिल्म अभिनेत्री), विनोद कापरी (टीवी पत्रकार , इंडिया टीवी ) , प्रह्लाद काक्कर (ऐड फ़िल्म निर्माता ), परंजय गुहा ठाकुरता (स्तंभकार और मीडिया समीक्षक ), राजीव मसंद (फ़िल्म समीक्षक ) ने विचार प्रस्तुत किए।



परंजय गुहा का मानना था की सेंस और सेंसेशन के बीच एक बारीक रेखा होती है जिसमें फर्क करना बेहद जरुरी होता है और यह फर्क विषय के प्रस्तुतीकरण के साथ उसकी अंतर्वस्तु से भी जुरा है। वहीं कविता का कहना था की sensation की परिभाषा सापेक्ष होती है...सेंस में जहाँ नैतिक जिम्मेदारी का अहसास होता है, सेंसेशन में उतेजित करने का उद्देश्य होता है.लित्तेत दुबे का कहना था की जिस तरह से मुंबई पर आतंकी हमले को २४ घंटे दिखाया जा रहा था...वो सिर्फ़ भय के वातावरण को निर्मित कर रहा था। दूरदर्शन के कार्यक्रमों में कम से कम जवाबदेही तो बनी रहती है ....भले उनकी गुणवत्ता कैसे भी हो . उन पर लोकसभा में बहस की जा सकती है.



विनोद दुआ ने विमर्श को गति देते हुए इंडिया टीवी के बहने भूत-प्रेत, महाप्रलय जैसी अन्धविश्वास से भरी कोवेरेजों पर सवाल उठाया तो विनोद कापरी ने बताया की एक बार स्टार न्यूज़ ने मौलाना द्वारा फतवा बेचे जाने पर ६ माह तक स्टिंग ओपरेशन किया और भरे जोश-खरोश में उसे चैनल पर एयर किया तो उसके जवाब में देश का नंबर १ चैनल 'नागिन का बदला ' चला रहा था...टीआरपी रेटिंग सामने आई तो उनके ६ महीने के मशक्कत को आशानुरूप टीआरपी नही मिली यानी दर्शको ने 'नागिन के बदले ' को हाथो हाथ लिया। टीआरपी के खेल का खुलासा यह है की देश के लगभग ५००० टीआरपी बॉक्स पुरे इंडिया के दर्शको की परतिक्रिया को बताने का दावा करते है तो पूर्वोत्तर राज्यों और बिहार में एक भी टीआरपी बॉक्स नही है.



विनोद दुआ ने कहा की हिन्दी की मनोहर कहानिया जैसी पत्रिकाओं का चंनेलिया संस्करण हमारे सामने मजूद है....इंडिया टीवी जैसे चैनलों को अपना ब्राडकास्टिंग लाइसेंस को समाचार चैनल के बजाय मनोरंजन चैनल में तब्दील करवा लेना चाहिए क्योंकि न्यूज़ के नाम पर वाहियात चीजे परोसना सरासर ग़लत है। यह लो कोस्ट मीडिया रिपोर्ट हैं . मन्दिर में बार पर सभी को आपति होती है...और बार में मन्दिर भी नही जंचता.



मीडियाकर्मियों के जेहन में एक सवाल जो हमेशा हावी रहता है...की उन्हें अपने विवेक और संचार बोध के बजे मैनेजमेंट को की प्रोफिट-मेकिंग पॉलिसी को तुष्ट करना होगा...इसलिए चाहकर भी वे कुछ नही कर सकते, के जवाब में प्रहलाद काकर ने कहा की यह पत्रकारों के अपने एथिक्स पर भी निर्भर है...अगर कों उन्हें आत्मघात करने को कहे तो वो नही करेंगे। ...इसलिए सच को प्रसारित करने की गुंजाइश हमेशा बची रहती हैं.



कितनी अजीब बात है मीडिया सेंसेशन दर्शकों के नाम गैर -जरुरी कार्यक्रमों की आपूर्ति करता है और दर्शकों से उम्मीद की जाती है की वो सेंस दिखाएं....पर क्या कभी किसी चैनल ने दर्शकों के नकारात्मक फीडबैक को प्रसारित किया है...रेडियो पर भी हमेशा श्रोताओं द्वारा चैनल के लिए बांधे तारीफों के पुल या फरमाइशी गाने ही सुनाये जाते हैं...लब्बोलुआब यह की ना तो मीडिया ख़ुद से अच्छे कार्यक्रम बनाने की शुरुआत नही करेगा जब लोग टीवी देखना बंद नही करेंगे या.. सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश जारी नही हो जाते....तब तक कोई मीडिया संगठन सेल्फ सेंसरशिप करता है तो उसकी मेहरबानी hee होगी.

Tuesday, December 16, 2008

मीडिया के बाल मजदूर

महाराष्ट्र के श्रम मंत्री का कहना है की जिस तरह से टीवी धारवाहिकों में च्चो से काम लिया जाता है....उससे उनके सेहत और दिमाग दोनों पर बुरा असर हो रहा है....मंत्री महोदय को टीवी में काम करने वाले बच्चे तो नज़र आये पर उन लाखो बच्चो की सुध कौन लेता है...जिन्हें हम स्ट्रीट चिल्ड्रेन के नाम से जानते है...बालिका वधु की आनंदी और उतरन की इच्छा और चक दे बच्चे,लिटिल चम्प्स जैसे कॉम्प्लान बॉय-गर्ल तो उन्हें काम के बोझ से दबे हुए मिले पर उन्हें मुंबई की सरकों पर बूट पोलिश करते , रेलवे स्टेशन पर झारू लगते बच्चो की बेचारगी क्यों नहीं दिखी। और वो बात भी किन बच्चो की करते है जिनकी अगली मंजिल सिल्वर स्क्रीन है ....डूसू चुनाव को राष्ट्रीय राजनीती में कदम का ट्रेनिंग ग्राउंड माने वाले कॉलेज स्टूडेंट्स की तरह ये बच्चे भी चल चित्र पर आने को बेताब हैं....हंसिका मोटवानी, जुगल हंसराज, उर्मिला मातोंडकर, श्वेता प्रसाद, दर्शील सफारी, आयशा कपूर जैसे तो सेंट्रल ऐक्टर में तब्दील हुए मीडिया के बाल मजदूरों की लिस्ट तो लम्बी हो सकती है.....अगर ये खाए पिए अघाये बाल मजदूरों के लिए कानून की सरपरस्ती है तो सचमुच में हड्डी पसली एक करके रोज़ी - रोटी कमाने वाले बच्चो को उनका हक क्यों न दिया जाए।