Wednesday, October 21, 2009
चित्तौड़ की रानी पद्मिनी का जौहर
Monday, June 8, 2009
मीडिया अध्यापन का हिन्दी मानस
विनीत कुमार ने अपने ब्लॉग गाहे-बगाहे पर दुरुस्त फ़रमाया है कि मीडिया का साहित्य सम्मत शास्त्रीय विवेचन करने से कहीं अधिक जरुरी है कि अपनी जमीं के पैमाने से उसका विश्लेषण हो। हम यह सोच कर आनंदित होते रहते हैं की आधुनिक हिंदी साहित्य और नवजात हिंदी पत्रकारिता जन्म एक साथ हुआ है और कई बार यह अति उत्साह में निरे साहित्य को पत्रकारिता का पर्याय मान बैठते है । प्रिंट मीडिया को तो हमने मुद्रण तकनीक के चलते उसे साहित्य की ही श्रेणी में जबरन फिट कर दिया पर संचार के इलेक्ट्रॉनिक पहलु इसकी जद से बाहर हैं ...हालाँकि एक वाजिब सवाल यह है कि क्या अख़बार को मुद्रित विधा होने की वज़ह से टीवी , रेडियो , फिल्म के संचार माध्यम के समूह से अलग किया जा सकता है क्योंकि जन्सचार के माध्यमो की खासियत ही यही है कि वह एक साथ एक वक़्त पर बड़े लक्ष्य समूह (पाठक, श्रोता , दर्शक ) को सन्देश संप्रेषित करते हैं....उस पर वेब पत्रकारिता तो प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक का कॉम्बिनेशन बनकर उभरी है,उसे कैसे भूल सकते है। भले ही इन्टरनेट उपभोक्ताओं की संख्या कम हो , पर मोबाइल उपभोक्ताओं की संख्या तो अधिक है (वर्तमान में केवल ३० फीसदी आबादी ही मोबाइल का इस्तेमाल करती है ...इसलिए अगर ५० प्रतिशत जनता के हाथों में मोबाइल आ जाता है तो भी मोबाइल की कॉल दरें 20-25 पैसे होने की पूरी संभावनाएं है ...क्योंकि दूरसंचार उद्योग में के प्लेयर की भी संख्या स्वाभाविक रूप से बढेगी, जिस पर कि चंद सर्विस प्रोवाईदेर्स की ही इजारेदारी है ). मीडिया में अब भी ऐसे शिक्षकों की कमी नहीं है जो सगर्व घोषित करते है कि वे इन्टरनेट सेवी नहीं हैं या अगर करते भी हैं तो अपने निजी कामों के सिलसिले में मसलन प्रकाशक को पुस्तक की सामग्री मेल करने, या लेख लिखने की सम्बन्ध में सामग्री खोजने के लिए....भाई जब आप टीवी देखते हैं, रेडियो सुनते हैं , अख़बार पड़ते है , इन्टरनेट बैंकिंग करते है , रेलवे टिकेट की ऑनलाइन बुकिंग करते है ,लेटेस्ट फैशन का मोबाइल रखते हैं ... इन्टरनेट को बतौर वेब मीडियम संचार साधन के तौर पर स्वीकारने में क्या हर्ज़ है...जबकि आलम यह है कि अगर इन्टरनेट पर किसी जगह कंपनी का ज़िक्र नहीं है तो उसकी भौगोलिक उपस्थिति बेमानी-सी लगती है ...लक्षदीप का स्टुडेंट दिल्ली विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर जाकर उसकी की पूरी मालूमात इन्टरनेट के जरिये हासिल कर रहा है। हिंदी के अध्येता मीडिया पढाएं, उसमें उतनी उतनी समस्या नहीं है ...जितनी की वो मीडिया के प्रतिक्षण बदलते स्वरुप, चरित्र, आयामों के बदलावों को नोटिस नहीं करते क्योंकि उससे कंटेंट और उसकी प्रस्तुति कंटेंट को भी बदलती है , उसके तकनीक, प्रोडक्शन कोस्ट , इनपुट , तयशुदा रिजल्ट से जुड़े प्रोग्राम स्ट्रक्चर पर बात होनी चाहिए , पर इसके बजाय औचित्य, प्रभाव, नैतिकता, मिशन /प्रोफेशन पर ही बहस केन्द्रित हो जाती है। आज की चिंता है संपादक की सत्ता ख़त्म हो गयी है... प्रबंधक ही मालिक और सर्वेसर्वा है, पर क्या घाटे का मीडिया चला कर , मिशनरी पत्रकारिता की आस लगाकर क्या पत्रकारिता को भौतिक सच्चाइयों के बरक्स वरेण्य क्षेत्र बनाया जा रहा है . मीडिया कर्म को एक आजीविका के तौर पर देखे जाने के पेशेवर नज़रिए की सख्त जरुरत है , जिसका असर मीडिया के छात्रों के अध्ययन में व्यवहारिक प्रशिक्षण के कार्यकुशल, दक्ष श्रम से जुडी है। मीडिया का इतिहास पड़ते हुए पत्रकारिता की विभूतियों यथा गणेशशंकर विद्यार्थी, पराड़कर, जगदीश चन्द्र माथुर, भारतेंदु, महात्मा गाँधी, महावीर द्विवेदी से लेकर आगे, रघुवीर सहाय तक आते है जिन्होंने प्रिंट मीडिया में अपना योगदान दिया पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को पालने पोसने वाले लोगों की कहीं बात नहीं होती कमलेश्वर, मन्नू भंडारी, मनोहरश्याम जोशी, राही मासूम राजा के सिने अवदान पर बात नहीं की जाती, उनकी पटकथाओं का जिक्र नहीं होता...फिल्म पढ़ते हैं तो फिम स्क्रीनिंग कि कोई व्यवस्था ही नहीं होती...जब भारतीय निर्देशकों कि फिल्मों को ही संस्थओंओं में प्रर्दशित नहीं किया जाता तो विदेशी फिल्मकारों की सिने कला को कैसे समझा पाएंगे।फिल्म पढ़ते हैं तो फ़िल्म स्क्रीनिंग की कोई व्यवस्था ही नहीं होती...जब भारतीय निर्देशकों कि फिल्मों को संस्थानों में प्रदर्शित नहीं किया जाता तो विदेशी फिल्मकारों की सिने कला को कैसे समझा पाएंगे....फिर डॉक्युमेंटरी तो पहले से ही उपेक्षित विधा है. भूमंडली कृत मीडिया बाज़ार में टाइम, वार्नर, टी सी आई, न्यूज़ कोर्प, डिज़नी कि स्याह स्केच ज्यादा मिलते हैं बजाय कि उनके मीडिया प्रबंधन और प्रकार्यों पर बात होती तो बेहतर होता।हिंदी आलोचना सिद्धांतों से मीडिया की व्याख्या करना व्यर्थ की माथा पच्ची है।
हद तो यह है की वैकल्पिक मीडिया पढ़ते हुए ...लघु पत्रिका आन्दोलन का ही झंडा बुलंद किया जाता है जबकि सच्चाई यह है की उसमें मीडिया कंटेंट से कहीं अधिक साहित्य ही है...ब्लॉग , कम्युनिटी रेडियो को ही भुला दिया जाता है ।मूल्यहीन मीडिया सभी की आँखों की किरकिरी है, पर क्या अन्य पेशों में मूल्यों का क्षरण नहीं हुआ है ...सरकारी डॉक्टर भी गाँव में जाने से कतराते है ..अध्यापक भी पार्ट टाइम ट्यूशन करते है . इसलिए अगर विज्ञापन के बल पर 5-10 रुपये की लागत का अखबार 2-3 रुपये में आम आदमी को मयस्सर है तो इसमें बुराई क्या है। मीडिया को कठघरे में खडा किया जाता है कि उससे लोग बिगड़ते है तो क्या इसी मीडिया के प्रोडक्ट धार्मिक टीवी चैनल , रामायण , महाभारत को देखर लोग सज्जन क्यों नहीं बने। यकीं जानिए औडिएंस इतना भी बेवकूफ नहीं है , जितना हम उसे आसानी से झांसे में आने वाला मानकर उसके हकों की आवाज़ उठाने का दम भरते है ...वो एग्जिट पोल के अनुमानों को धता बताते हुए अपनी मर्ज़ी से सरकार चुनता है, न कि 'जय हो ' के विज्ञापन को देखकर वोटिंग करता है ।
Thursday, June 4, 2009
पानी रे पानी तेरा रंग कैसा !
जिन्दगी की इस बुनियादी जरुरत के महत्त्व को समझते हुए सफ़र (सोशल एक्शन फॉर एडवोकेसी एंड रिसर्च ) संस्था ने २३ मई २००९ को वजीराबाद गाँव स्थित कार्यालय में ' कलर्स ऑफ़ वाटर' डॉक्युमेंटरी स्क्रीनिंग का आयोजन किया। वृत्तचित्रकार विजेंद्र द्वारा बनायीं गयी इस फिल्म में राजधानी के अलग-अलग इलाकों में पानी को लेकर निवासियों को होने वाली दिक्कतों को फिल्माया गया है.साथ ही जायजा लिया गया है पानी से सम्बंधित कानूनी प्रावधानों का. निजी बिल्डरों द्वारा कॉलोनियों को बनाने में समर जेट पम्प लगाने की हरकत हो या सार्वजानिक नल पर और पानी के टैंकरों पर टूटी भीड़ में सर-फुटौव्वल का रोजाना मंजर हो या फिर जल बोर्ड की टूटी हुयी पाइप लाइनों और टैंकर के बहते हुए नल हो, डॉक्युमेंटरी में न केवल समस्या के पहलुओं को दिखाया गया बल्कि जनता से ही पानी को बचाने की कोशिश की पहल करने की इच्छा को भी सामने रखा गया है.
Sunday, April 12, 2009
सफर का सांस्कृतिक कार्यक्रम 'अभिव्यक्ति २००९' , ११ -१४ अप्रैल २००९
Monday, March 30, 2009
शिवखोरी - जम्मू का एक कन्दरा तीर्थ
जम्मू वैष्णो देवी की यात्रा तो तकरीबन दस साल पहले भी की थी पर इस बार शिवखोरी जाना नया अनुभव रहा है...कटरा से ८० किमी की दूरी पर रन्सू इलाके का यह तीर्थ लगभग पांच साल पहले तक सवेंदनशील क्षेत्र माना जाता था क्योंकि यह राजौरी-पुँछ सेक्टर से सटा हुआ है...उस समय पर्यटकों को पहचान पत्र रखने की जरुरत रहती थी...क्या पता कब पुलिस चेकिंग होने लगे।
२ की रात को पौने नौ बजे नयी दिल्ली-उधमपुर जाने वाली उत्तर जनसंपर्क क्रांति से हमारा १२ सदस्यीय दल सुबह ६ बजे जम्मू तवी रेलवे स्टेशन पर उतरा ..वहां से जम्मू और कश्मीर राज्य परिवहन की बस पकड़ कर कर कटरा पहुंचे. सत्य होटल में ६०० रुपये की दर से दो रात के लिए कमरे लिए...एक महिलाओं के लिए और एक पुरुषों के लिए. कमरे में सामान रखकर नित्यकर्म के बाद करीब ११ बजे वैष्णो देवी भवन के लिए चढाई शुरू की...चूँकि हमारे ग्रुप में एक ७१ वर्षीय बुजुर्ग महिला भी थी , इसीलिए भवन पहुँचने में औसत ३-४ घंटे से अधिक समय लग गया...अनुरोध करने के बावजूद उन्होंने घोडे-खच्चर-पालकी पर सवारी करना स्वीकार नहीं किया...उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए ४:३० बजे गुफा में पिंडियों के दर्शन किये. सुबह से सिर्फ चाय का ही पी थी ..५ बजे भोजन करने के उपरांत वाया भैरों मंदिर होते हुए आदिकुमारी की गुफा में ९ बजे करीब बजे कतार में लगे. इसी बीच में सिने तरीका सुष्मिता सेन के अपनी पुत्री के साथ वीआइपी दौरे के चलते ४५ मिनट और अपनी बारी का इंतजार करना पड़ा ...हमारे सफ़र के गाइड (गाइड इसलिए की वो पिछले १५ वर्षों से लगातार दर्शनार्थ वहां जाते रहे हैं ) महेंद्र भैया ने चुटकी ली ...लो तुम्हे एक और देवी के दर्शन करा दिए...मेरे भाई ने उससे हाथ मिलाया था...मैंने मजाक में कहा अब हाथ मत धोना...अंतत साढ़े ग्यारह बजे तक हमारे समूह ने दर्शन कर लिया था..तत्पश्चात अपने रूम पर १ बजे करीब पहुंचे ..रास्ते में ही रात का खाना खा लिया था. 2 बजे तक सब बिस्तर पर निढाल हो चुके थे.
५ घंटे के सफ़र के बाद पाकिस्तान की ओर बह रही चेनाब नदी पार करते हुए हम शिवखोरी की चढाई के लिए बस से उतरे ....होटल वाले को खाने का मेनू बताकर चले गए थे क्योंकि खाना वहां २ घंटे पहले आर्डर करना पड़ता है। १:३० बजे होटल से २० २५ कदम की दुरी से श्राइन बोर्ड द्वारा निर्मित ४.५ किमी के यात्री मार्ग से ऊपर गुफा में पहुंचे.३ बजे तक दर्शन करके वापस होटल पहुँच चुके थे....घाटी से सटी हुए इस इलाके में गेहूं की फसल लहलहा रही थी....खैर के कांट-छाँट किये हुए काले पेड़ आकाश की ओर सर उठाए थे...लाल फूलों से लदे सेमल के वृक्ष हरे भू दृश्य में सुन्दर कंट्रास्ट पैदा कर रहे थे....५ बजे वहां से वापस कटरा के लिए रवाना हुए.
फिर रास्ते में रियासी इलाके में एक पार्क था....उसमें शिवखोरी के एक और मंदिर और छोटे से ताल में मछलियाँ थी....हरे-नीले पानी में मछलियाँ भी मयूर रंगों में चमक रही थी....उसी पार्क के पीछे की तरफ एक पहाड़ था जिसकी चोटी पर एक किला दिखाई दे रहा था...कहते हैं कि वो किला जम्मू के किसी राजा का था.
अगले दिन १२ बजे कटरा को अलविदा कर रेलवे स्टेशन गए। रेलवे परिसर के क्लोक रूम में सामान जमा किया । ट्रेन ८:३० की थी इसलिए स्टेशन से आरटीवी नुमा छोटी बस से ५ रुपये प्रति व्यक्ति की दर से रघुनाथ मंदिर गए। भारत का सबसे बड़ा शिवलिंग के अलावा एक पारदर्शी शिवलिंग भी इसकी विशेषता है। दोपहर के भोजन के बाद वहां की प्रसिद्ध चोकलेट बर्फी जो काफी कुछ स्वाद में बाल मिठाई से मिलती जुलती है, लेकर खील अखरोट (अखरोट तो वैष्णो देवी के प्रसाद की पहचान बन चुकाहै) इत्यादि प्रसाद की सामग्री ली।फिर वापस ७ बजे रेलवे स्टेशन पहुंचे। अपना सामान वापस लेने के बाद ४५ मिनट तक प्लेटफोर्म के फर्श बैठ कर ही बिताये । हमारा प्लेटफोर्म नोम्बर ९ था पर वहां काफी भीड़ थी, इसलिए हम ८ पर चले गए और १५-२० मिनट पहले वापस अपने प्लेटफोर्म पर आकर दिल्ली की राह पकड़ी.