Monday, November 5, 2007

बाजार के कारण ही खांटी अंग्रेजी के लोग हिन्दी में बोल रहे हैं - संजय शर्मा

दीवान-ए-सराय 01 के सहसंपादक संजय शर्मा इतिहासकार और रेडियो प्रसारक हैं। हिन्दी और अंग्रेजी में लिखने वाले संजय की फैमिन फिलैन्थ्रापी ऐण्ड द कोलोनियल स्टेटः नार्थ इन दि अर्ली नाइन्टीन्थ सेंचुरी' पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। संप्रति वे जाकिर हुसैन कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में रीडर और बीबीसी के लिए स्वतंत्र प्रसारक के तौर पर कार्यरत हैं। प्रस्तुत है मीडियाकर्मी के तौर पर उनके अनुभवों से लबरेज वार्तालाप:-

दीवान में मीडिया विमर्श और हिन्दी जनपद के जरिए किन पहलुओं पर ध्यान दिया गयाहै?

सराय का सरोकार भाषा, टेक्नॉल्जी, मीडिया की विशेष चिंतन पद्धति से है। इन विषयों की जटिलता को सामाजिक विज्ञानों के संदर्भ में समझने के परिप्रेक्ष्य में जरूरत है। इतिहासकार, समाजशास्त्री इन चीजों को पढ़ते हैं। इंटरनेट, सैटेलाइट चैनलों, केबल टीवी के आगमन से नई संभावनाएँ जुड़ी हैं। जो लोग इन चीजों से जुड़े हैं उनसे हम साझा करते हैं। आज आप इंटरनेट पर अपना ब्लॉग बना सकती हैं। जिन लोगों का डायरेक्ट एक्सपोजर है, उनके अनभुवों के साथ कम शिक्षित लोगों की व्यवस्थाओं को जगह दी है, साक्षात्कारों को जगह दी है। मेरी माँ बूढ़ी हो गई हैं। पहले समय कटता नहीं था, परंतु आज टीवी के जरिए उनका समय व्यतीत हो जाता है, भले ही लोग इसे नकारात्मक मानते हैं, पर इस अर्थ में सकारात्मक है कि उनके पास विकल्प है। टेक्नॉल्जी को अपनाना ग्लोबलाइजेशन की डिमांड है। पायरेसी का भी अपना एक कल्चर है ...तो नए विश्व में आपस में सर्वाइव करने की संस्कृति का एक समाजशास्त्रीय दष्टि से अध्ययन है। हम अपनी सीमाएँ भी स्वीकार करते हैं।w

मीडिया के हिन्दी प्रयोग पर कटाक्ष करने को लेकर आपका क्या मत है?
घंटे के चैनल का दबाव है । बड़ा बाजार बनेगा तो हिन्दी के लिखने वालों का उत्साह बढ़ेगा। बाजार के कारण ही खांटी अंग्रेजी के लाग हिन्दी में बोल रहे हैं। पहले अगर पचास पीएचडी होती थी तो उनमें से दस-पंद्रह अच्छी होती थी , अब अगर सौ अच्छी होती है तो उसमें पच्चीस-तीस आला दर्जे की होती है। मनोहर श्याम जोशी, मृणाल पांडे भी तो मीडिया से जुड़े तो क्या मीडिया की अपनी गरिमा, आकर्षण नहीं है। हमारे यहाँ हिन्दी के लेखक को दीन-हीन समझा जाता है। एकता कपूर भी कमाएगी। गुलजार भी छोटे पर्दे के लिए काम करेंगे। हमारे यहाँ ७००-८०० फिल्में बनती हैं उनमें सभी अच्छी नहीं होती तो सभी बुरी भी नहीं होती हैं कुछ अच्छी और कुछ बुरी होती हैं। इस अनुपात से गुणवत्ता का अनुपात भी उत्तरोतर बढ़ेगा।
क्या पत्रिका पाठक वर्ग के लिहाज से अभिजात्य नहीं है?

पत्रिका मकसद में अभिजात्य नहीं है, पर प्रकाशन के स्तर के लिहाज जरूर अभिजात्य हो सकती है क्योंकि यह सराय का एडवांटेज है। सही तरीके से प्रॉड्यूस किया है, कोशिश की है कि किताब का दाम कम रखा जाए। हम भरपूर कल्पनाशीलता का इस्तेमाल करके हम यह काम कर सकते हैं। हमने इसे रीडर फ्रैंडली बनाया है। अपने कलेवर, कथ्य के साथ अनूठे प्रयोग किए हैं जिन पर कि अंग्रेजी का प्रभुत्व माना जाता था।
कंप्यूटर को विकासशील भारत के लिए गैरजरूरी मानने पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
भले ही १०० करोड़ आबादी न सही पर १-२ करोड़ लोग तो कंप्यूटर का इस्तेमाल करते हैं। ये भी जनसंख्या का छोटा हिस्सा नहीं है। भारत में यंग जेनरेशन तकनीक के निकट है । प्रौढ़ तबके में कुछ प्रगतिशील भी है। लोग माध्यमों का इस्तेमाल करते हैं क्योंकि उन्हें उनकी जरूरत है। मोबाइल को ही देखिए, आज केवल खास तबके का ही यंत्र नहीं है। अब पहले की तरह स्टेट्स सिंबल नहीं रह गया है। पहले लोग सोचते थे कि गरीब आदमी मोबाइल क्यों रखेगा।अगर कोई नौकर बाजार में सब्जी लेता है और अगर उसे मालिक से कुछ पूछना है तो वह वापस घर जाने के बजाय मोबाइल से फोन करके अपने मालिक से जो समान चाहिए, पता कर सकता है। ग्लोबलाइजेशन का दबाव है कि चीजों के अधिक उपयोग से वे सस्ती होंगी। आप किस-किस चीज से मुँह मोड़ेंगे। आज जो चीज अभिजात है, तेजी से सामान्य होगी।
भारत की कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में सूचना तंत्र के विकास की कितनी गुंजाइशें हैं?
उदारीकरण आर्थिक क्रियाकलापों-प्रक्रियाओं का प्रोडक्ट है। उन चीजों को तेजी से प्राथमिकता दी है जिन्हें नहीं देना चाहिए। जो हमारे लोग हैं वे केवल शहरों को नकारते हैं, नई ग्लोबल इकॉनॉमी बन रही है। कृषि हमारी जीडीपी का पच्चीस प्रतिशत है और इस पर देश की सत्तर प्रतिशत जनसंख्या निर्भर करती है यानी कृषि में बड़ी तादाद में ग़ैर-जरूरी लोग लगे हैं। शहरों में काम करने वाले वही लोग हैं। इससे एक इंफार्मेशन सिस्टम उनके बीच विकसित होता है।v क्या इंटरनेट प्रकाशनों से आम आदमी लाभान्वित हो रहा है?मेरी बहन एक गाँव में डॉक्टर है। उसके पास नेट की सुविधा है। यह तकनीक ब्रिज बनाती है। कोई रोक-टोक नहीं है। कई बार वह विदेश में बैठे किसी डॉक्टर से किसी रोग के बारे में जानकारी व दवाएँ तथा उपचार जानना चाहती है तो वह इसका उपयोग करती है। तमाम पत्रिकाओं के लेखों को डाउनलोड कर सकती है। यह एक तरह का को-एक्जिजटेंस ही है। एक तरफ़ सदियाँ हैं, उनके बीच टकराव भी हैं लेकिन तमाम परिस्थियों के बाद भी हम चलते रहते हैं। भारत में पिछड़ेपन की कई निशानियाँ हैं तो नई संभावनाएँ भी रास्ते टटोल रही हैं। मेरा बेटा कंप्यूटर पर पेंटिग करता है। मैं उसे क्यों कहूँ कि वह कागज पर ही ब्रश से पेंट करे। होने को वह एक आभासी दुनिया है, पर यह भी उतना ही रियल है जितना कि हमारे लिए कागज पर काम करने वाला संसार।
इंटरनेट पर अखबारों को डिस्पले कराने का क्या तर्क है जबकि उसके समांतर उनका मुद्रण भी हो रहा है?
बीबीसी कन्वेंन्शन तरीक़े का जड़ ऑर्गेनाइजेशन है। हम लोगों के कहने पर उसका ऑनलाइन प्रसारण शुरू हुआ। अगर हमारे यहाँ सुबह अखबार नहीं आता तो हम नेट पर जाकर उसकी साइट में खबरें पढ़ सकते हैं। अभी भी लोगों में उसको लेकर शंकाएँ हैं, जड़ताएँ हैं। अब हमारे समय में चिन्ताएँ नहीं हैं जो हमारे माँ-बाप को हमारे लिए करनी पड़ती थी। मोबाइल, एसएमएस ने हमारे जमाने की एन्जायटी (Anxiety) को कम किया है। गरीब बाप भी शहर में पढ़ रहे बेटे को मोबाइल दिलाने की कोशिश करता है। वे कॉन्सटेंट टच में रहना चाहते हैं। ये सब दिल्ली की बात नहीं है। तमाम जगहों पर खलबली-सी मची हुई है। सन् सत्तर तक ...बल्कि नब्बे तक भी इतना बदलाव नहीं हुआ था।
न्यूज चैनलों में जिस तरह एक्सलूसिव के लेबल का इस्तेमाल किया जाता है, वे वाकई में कितनी विशिष्ट होती है?
एक्सलूसिव अब कुछ रहा ही नहीं। न्यूज किसकी बपौती रह गई है। इन्वेस्टिगेटिव स्टोरी ही थोड़ी-बहुत अलग हैं। ब्रेकिंग न्यूज का कोई आस्पेक्ट नहीं रह गया है। कोई व्यक्ति अगर वह सार्वजनिक जीवन में है वो तो सभी को बाइट्स देगा। ये फ़र्क हो सकता है कि किसी को बेहतर साउंड बाइट्स मिल जाए। बे्रकिंग तो बस एक टैग है। बंटी-बबली में एनडीटीवी का एड हैं। एक्चुअली इट्स दी मैटर ऑफ शिफ्टिंग ऑफ ब्रांड।
क्या दीवान-ए-सराय भी अपने-आप में ब्रांड नहीं है?

ब्रांड का रिश्ता बाजार से है। इट्स मैटर टु अंडरस्टैंड! सराय का ब्रांड बनाना होता तो कॉपीलेफ्ट क्यों होता? कोई व्यक्ति कैसे भी टैकल करें, ब्रांड बनाने से व्यावसायिक दबाव रहता है।
क्या मीडिया पर प्रथम विश्व का नियंत्रण नहीं है?
मीडिया नियंत्रण के जरिए राजनीतिक दल विरोधियों की छवि धूमिल करने से नहीं लगे हैं?डोमिनेशन फर्स्ट वर्ल्ड का है। स्टिंग ऑपरेशन में तकनीक, विधि सवाल अंतर्निहित है। जो लोग सार्वजनिक जीवन में हैं, उन्हें खतरें उठाने पड़ते हैं। पर्दे के सामने कोई घूस नहीं लेता है। लोग इसी मीडिया की बदौलत देवता बन जाते हैं। अपने रूझान को सामने रखकर काम करेंगे तो वह ठीक है।
काव्या किसी लेखक की कृति के अंश ज्यों का त्यों उतारती हैं लेखक की कृति के ansh को ज्यों का त्यों उतारती हैं तो क्या उन्हें कॉपीलेफ्ट के जरिए सपोर्ट किया जाएगा?

यदि आप किसी से इन्सपायर्ड हैं तो अक्नॉलेज कर लीजिए। माइक्रोसॉफ्ट कंपनी कुछ नया नहीं बना रही है। वह पहले से बने हुए सॉफ्टवेयर से कॉपीराइट जरिए पैसा उगाह रही है। उनके सॉफ्टवेयर कितने महंगे है, इसलिए उनकी पायरेसी करने की नौबत आती है। चींटी हाथी को काटे और हाथी चीटीं को कुचले, दोनों में अंतर है। काव्या का मामला चींटी के जैसा है। उनकी किताबों की सेल भी कुछ ऐसे ही थी जैसे फर्स्ट डे फस्ट शो देखना। हिन्दी के बहुत से लोग ऐसे मिल जाएंगे जिन्होंने अपने संग्रह की किताबें पढ़ी न हो पर दूसरे को दिखाकर अपने को उन्नीस साबित करना चाहते हैं।
क्या व्यावसायिक सफलता और रचनात्मक गुणवत्ता परस्पर विरोधी तत्व हैं?
ये एक शुद्धतावादी आग्रह है। जोशी जी ने इसी को चैलेंज किया। यह हिन्दीकारों का आग्रह है कि पहले आप रामचंद्र शुक्ल से आदिकाल से आधुनिककाल को पढ़िए, प्रेमचंद, निराला, द्विवेदी, प्रसाद, महादेवी को जानिए तब जाकर कहीं आप जानकार हैं। इस रास्ते से गुजरने की हिम्मत कम ही लोगों में है। आपने रंग दे बसंती', हम-तुम' के गाने सुने होंगे। प्रसून जोशी ने इन गीतों में लोगों की नब्ज पकड़ी है। पहले लड़किया कहाँ काम किया करती थी, आज हर क्षेत्र में नजर आती हैं। जब तक आप मानस की चौपाई याद नहीं कर लेते तब तक आप विद्वान नहीं हैं। परदेस (शहरों) में आप उसी खाँचे को नहीं स्वीकार कर सकते। यह हम सबके जीवन में हैं। पुराने मानक और पुराने रास्ते एकमात्र नहीं रह गए हैं। लोग कहते है कि कल का लड़का हमें सिखाने चला है। प्रतिभा को पुष्पित-पल्लवित करने की एक ही परिपाटी नहीं है। नेट पर शादी व तलाक भी है। सरहदों को तोड़ना होगा। विदेशी पूँजी से निपटने के लिए खड़े लोग चैटिंग को नहीं समझेंगे। हम यहीं कूपमंडूकता में जिए जा रहे हैं।
आपने बीबीसी के राष्ट्रवादी रवैये को अपने लेख में प्रकट किया है? क्या राजभक्ति को राष्ट्रवाद का जामा नहीं पहना दिया गया है?
मीडिया बहुत राष्ट्रवादी है। नेशन का एक विचारधारा के रूप इस्तेमाल सत्ता प्रतिष्ठान के लोग करते हैं। राष्ट्रवाद के नाम पर मीडिया जज करती है। अंध राष्ट्रवाद की तरफ़ बढ़ रहे है। ज्यादातर सरकारें राष्ट्रवाद के नाम खबरें को दबाती हैं।
क्या मीडिया केवल नगरीय सरोकारों तक ही सीमित नहीं है?

मीडिया शहर की तरफ़ ज्यादा इंट्रेस्टेड है। गाँव-देहात सिरे से ग़ायब हैं। मीडिया जब इन्हें उपभोक्ताओं में तब्दील करेगा तो इनकी सुननी पड़ेगी।