Monday, June 8, 2009

मीडिया अध्यापन का हिन्दी मानस

'' हिन्दी मीडिया के उपर ये बात भले ही लागू होती हो कि संचार को सबसे पहले समझने और विश्लेषित करने का काम साहित्य के लोगों ने किया। इसकी बड़ी वजह ये भी है कि जिस तरह हिन्दी साहित्य के लोगों ने हिन्दी पत्रकारिता का विश्लेषण किया उसी तरह से दो कदम औऱ आगे बढ़कर संचार का भी विश्लेषण कर दिया लेकिन दूसरी भाषाओं की बात करें तो वहां न सिर्फ पत्रकारिता को साहित्य से अलग विधा के तौर पर जाना समझा गया बल्कि इसे साहित्य से बिल्कुल अलग बताया गया। यही वजह है कि वहां ये कल्चरल स्टडीज के अन्त्रगत विश्लेषित किया जाता है,न कि साहित्य के अन्तर्गत।साहित्य के अन्तर्गत संचार और मौजूदा मीडिया को विश्लेषित करने की सबसे बड़ी सीमा है कि ये ले-देकर कंटेट पर जाकर स्थिर हो जाता है जबकि मीडिया और जनसंचार के संदर्भ में कंटेंट पूरे विश्लेषण का एक बहुत ही छोटा हिस्सा है। एक जरुरी बात और कि जब भी साहित्य के अन्तर्गत इसका विश्वेषण करते हैं तो कभी भी तकनीक औऱ इसके पीछे के अर्थशास्त्र की चर्चा नहीं करते इसलिए ये विश्लेषण से ज्यदा गप्प लगने लग जाता है जो कि आगे चलकर न तो मीडियाकर्मियों के कोई काम का होता है और न ही मीडिया के प्रति बेहतर समझ ही बन पाती है। हां इतना जरुर होता है कि साहित्य पढ़ने-पढ़ानेवालों की एक पूरी की पूरी पीढ़ी इसमें खप जाती है। ''


विनीत कुमार ने अपने ब्लॉग गाहे-बगाहे पर दुरुस्त फ़रमाया है कि मीडिया का साहित्य सम्मत शास्त्रीय विवेचन करने से कहीं अधिक जरुरी है कि अपनी जमीं के पैमाने से उसका विश्लेषण हो। हम यह सोच कर आनंदित होते रहते हैं की आधुनिक हिंदी साहित्य और नवजात हिंदी पत्रकारिता जन्म एक साथ हुआ है और कई बार यह अति उत्साह में निरे साहित्य को पत्रकारिता का पर्याय मान बैठते है । प्रिंट मीडिया को तो हमने मुद्रण तकनीक के चलते उसे साहित्य की ही श्रेणी में जबरन फिट कर दिया पर संचार के इलेक्ट्रॉनिक पहलु इसकी जद से बाहर हैं ...हालाँकि एक वाजिब सवाल यह है कि क्या अख़बार को मुद्रित विधा होने की वज़ह से टीवी , रेडियो , फिल्म के संचार माध्यम के समूह से अलग किया जा सकता है क्योंकि जन्सचार के माध्यमो की खासियत ही यही है कि वह एक साथ एक वक़्त पर बड़े लक्ष्य समूह (पाठक, श्रोता , दर्शक ) को सन्देश संप्रेषित करते हैं....उस पर वेब पत्रकारिता तो प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक का कॉम्बिनेशन बनकर उभरी है,उसे कैसे भूल सकते है। भले ही इन्टरनेट उपभोक्ताओं की संख्या कम हो , पर मोबाइल उपभोक्ताओं की संख्या तो अधिक है (वर्तमान में केवल ३० फीसदी आबादी ही मोबाइल का इस्तेमाल करती है ...इसलिए अगर ५० प्रतिशत जनता के हाथों में मोबाइल आ जाता है तो भी मोबाइल की कॉल दरें 20-25 पैसे होने की पूरी संभावनाएं है ...क्योंकि दूरसंचार उद्योग में के प्लेयर की भी संख्या स्वाभाविक रूप से बढेगी, जिस पर कि चंद सर्विस प्रोवाईदेर्स की ही इजारेदारी है ). मीडिया में अब भी ऐसे शिक्षकों की कमी नहीं है जो सगर्व घोषित करते है कि वे इन्टरनेट सेवी नहीं हैं या अगर करते भी हैं तो अपने निजी कामों के सिलसिले में मसलन प्रकाशक को पुस्तक की सामग्री मेल करने, या लेख लिखने की सम्बन्ध में सामग्री खोजने के लिए....भाई जब आप टीवी देखते हैं, रेडियो सुनते हैं , अख़बार पड़ते है , इन्टरनेट बैंकिंग करते है , रेलवे टिकेट की ऑनलाइन बुकिंग करते है ,लेटेस्ट फैशन का मोबाइल रखते हैं ... इन्टरनेट को बतौर वेब मीडियम संचार साधन के तौर पर स्वीकारने में क्या हर्ज़ है...जबकि आलम यह है कि अगर इन्टरनेट पर किसी जगह कंपनी का ज़िक्र नहीं है तो उसकी भौगोलिक उपस्थिति बेमानी-सी लगती है ...लक्षदीप का स्टुडेंट दिल्ली विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर जाकर उसकी की पूरी मालूमात इन्टरनेट के जरिये हासिल कर रहा है। हिंदी के अध्येता मीडिया पढाएं, उसमें उतनी उतनी समस्या नहीं है ...जितनी की वो मीडिया के प्रतिक्षण बदलते स्वरुप, चरित्र, आयामों के बदलावों को नोटिस नहीं करते क्योंकि उससे कंटेंट और उसकी प्रस्तुति कंटेंट को भी बदलती है , उसके तकनीक, प्रोडक्शन कोस्ट , इनपुट , तयशुदा रिजल्ट से जुड़े प्रोग्राम स्ट्रक्चर पर बात होनी चाहिए , पर इसके बजाय औचित्य, प्रभाव, नैतिकता, मिशन /प्रोफेशन पर ही बहस केन्द्रित हो जाती है। आज की चिंता है संपादक की सत्ता ख़त्म हो गयी है... प्रबंधक ही मालिक और सर्वेसर्वा है, पर क्या घाटे का मीडिया चला कर , मिशनरी पत्रकारिता की आस लगाकर क्या पत्रकारिता को भौतिक सच्चाइयों के बरक्स वरेण्य क्षेत्र बनाया जा रहा है . मीडिया कर्म को एक आजीविका के तौर पर देखे जाने के पेशेवर नज़रिए की सख्त जरुरत है , जिसका असर मीडिया के छात्रों के अध्ययन में व्यवहारिक प्रशिक्षण के कार्यकुशल, दक्ष श्रम से जुडी है। मीडिया का इतिहास पड़ते हुए पत्रकारिता की विभूतियों यथा गणेशशंकर विद्यार्थी, पराड़कर, जगदीश चन्द्र माथुर, भारतेंदु, महात्मा गाँधी, महावीर द्विवेदी से लेकर आगे, रघुवीर सहाय तक आते है जिन्होंने प्रिंट मीडिया में अपना योगदान दिया पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को पालने पोसने वाले लोगों की कहीं बात नहीं होती कमलेश्वर, मन्नू भंडारी, मनोहरश्याम जोशी, राही मासूम राजा के सिने अवदान पर बात नहीं की जाती, उनकी पटकथाओं का जिक्र नहीं होता...फिल्म पढ़ते हैं तो फिम स्क्रीनिंग कि कोई व्यवस्था ही नहीं होती...जब भारतीय निर्देशकों कि फिल्मों को ही संस्थओंओं में प्रर्दशित नहीं किया जाता तो विदेशी फिल्मकारों की सिने कला को कैसे समझा पाएंगे।फिल्म पढ़ते हैं तो फ़िल्म स्क्रीनिंग की कोई व्यवस्था ही नहीं होती...जब भारतीय निर्देशकों कि फिल्मों को संस्थानों में प्रदर्शित नहीं किया जाता तो विदेशी फिल्मकारों की सिने कला को कैसे समझा पाएंगे....फिर डॉक्युमेंटरी तो पहले से ही उपेक्षित विधा है. भूमंडली कृत मीडिया बाज़ार में टाइम, वार्नर, टी सी आई, न्यूज़ कोर्प, डिज़नी कि स्याह स्केच ज्यादा मिलते हैं बजाय कि उनके मीडिया प्रबंधन और प्रकार्यों पर बात होती तो बेहतर होता।हिंदी आलोचना सिद्धांतों से मीडिया की व्याख्या करना व्यर्थ की माथा पच्ची है।


हद तो यह है की वैकल्पिक मीडिया पढ़ते हुए ...लघु पत्रिका आन्दोलन का ही झंडा बुलंद किया जाता है जबकि सच्चाई यह है की उसमें मीडिया कंटेंट से कहीं अधिक साहित्य ही है...ब्लॉग , कम्युनिटी रेडियो को ही भुला दिया जाता है ।मूल्यहीन मीडिया सभी की आँखों की किरकिरी है, पर क्या अन्य पेशों में मूल्यों का क्षरण नहीं हुआ है ...सरकारी डॉक्टर भी गाँव में जाने से कतराते है ..अध्यापक भी पार्ट टाइम ट्यूशन करते है . इसलिए अगर विज्ञापन के बल पर 5-10 रुपये की लागत का अखबार 2-3 रुपये में आम आदमी को मयस्सर है तो इसमें बुराई क्या है। मीडिया को कठघरे में खडा किया जाता है कि उससे लोग बिगड़ते है तो क्या इसी मीडिया के प्रोडक्ट धार्मिक टीवी चैनल , रामायण , महाभारत को देखर लोग सज्जन क्यों नहीं बने। यकीं जानिए औडिएंस इतना भी बेवकूफ नहीं है , जितना हम उसे आसानी से झांसे में आने वाला मानकर उसके हकों की आवाज़ उठाने का दम भरते है ...वो एग्जिट पोल के अनुमानों को धता बताते हुए अपनी मर्ज़ी से सरकार चुनता है, न कि 'जय हो ' के विज्ञापन को देखकर वोटिंग करता है ।

Thursday, June 4, 2009

पानी रे पानी तेरा रंग कैसा !

देश की राजधानी दिल्ली में पेयजल की समस्या गहराती जा रही है है। कभी ३०-३५ फीट की गहराई पर मिलने वाले पानी का भूजल स्तर ३०० फीट तक पहुँच गया है. इस समस्या के मूल में हमारी रोज़मर्रा के कामों के लिए जरुरत से ज्यादा पानी की बर्बाद करने वाली लापरवाह आदतें तो शामिल है ही साथ ही प्रशासन की जल प्रबंधन और जलस्रोतों की रखरखाव सम्बन्धी नीतियों को भलीभांति लागू करने में बरती जा रही कोताही भी बराबर की हिस्सेदार है. पानी के उपयोग और संरक्षण के प्रति हमारा उदासीन रवैया यही रहा तो तीसरे विश्वयुद्ध की जड़ में जलाभाव का संकट होने के कयास गैर गैर गैर सच होते देर नहीं लगेगी.


जिन्दगी की इस बुनियादी जरुरत के महत्त्व को समझते हुए सफ़र (सोशल एक्शन फॉर एडवोकेसी एंड रिसर्च ) संस्था ने २३ मई २००९ को वजीराबाद गाँव स्थित कार्यालय में ' कलर्स ऑफ़ वाटर' डॉक्युमेंटरी स्क्रीनिंग का आयोजन किया। वृत्तचित्रकार विजेंद्र द्वारा बनायीं गयी इस फिल्म में राजधानी के अलग-अलग इलाकों में पानी को लेकर निवासियों को होने वाली दिक्कतों को फिल्माया गया है.साथ ही जायजा लिया गया है पानी से सम्बंधित कानूनी प्रावधानों का. निजी बिल्डरों द्वारा कॉलोनियों को बनाने में समर जेट पम्प लगाने की हरकत हो या सार्वजानिक नल पर और पानी के टैंकरों पर टूटी भीड़ में सर-फुटौव्वल का रोजाना मंजर हो या फिर जल बोर्ड की टूटी हुयी पाइप लाइनों और टैंकर के बहते हुए नल हो, डॉक्युमेंटरी में न केवल समस्या के पहलुओं को दिखाया गया बल्कि जनता से ही पानी को बचाने की कोशिश की पहल करने की इच्छा को भी सामने रखा गया है.


इसी मुद्दे से जुडी एक और लघु फिल्म 'कम पानी जादू ज्यादा ' में एक लीटर पानी से पूरी कार की सफाई के उपाय को दिखाया गया। इसी तरह का एक और प्रयास शेविंग क्रीम की जगह अलोवीरा की पत्तियों के इस्तेमाल से पानी की खपत को कम करने में नजर आया.


जल सरंक्षण पर केन्द्रित इन दो लघु फिल्मों के अलावा 'पूर्वधारणा' नामक वृतचित्र में चार लघु कथाओं को पिरोया गया। राजा द्वारा बनायीं गयी इस फिल्म में तमाम तरह के पूर्वाग्रहों को प्रस्तुत किया गया है. अंग्रेजी न जानने वालों के प्रति संकीर्ण रवैय्या हो या घर पर स्त्री को देखते हुए हमेशा यह कहना की ' क्या कोई आदमी (पुरुष) नहीं है ' का अक्सर किया जाने वाला लिंग-भेदी सवाल के वर्तमान समाज में मौजूद है. पुलिस की रॉब गांठने वाली आम छवि के विपरीत दुर्घटना स्थल सकारात्मक तस्वीर को पेश करती कहानी हो या फिर देश के मुसलमानों के प्रति गैर-मुस्लिम नागरिक की शंकालु दृष्टि को बयां करती हुई पेशकश काबिल-ऐ-तारीफ थी.