Sunday, February 22, 2009

परिधि से केन्द्र की ओर : 'स्माइल पिंकी'


मुंबई की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म 'स्लमडाग मिलेनियर' को बेस्ट अडाप्टेड स्क्रीनप्ले, बेस्ट साउड मिक्सिंग, बेस्ट एडिटिंग, बेस्ट सिनेमेटोग्राफी और बेस्ट म्यूजिक श्रेणी के लिए आस्कर पुरस्कार से नवाजा गया। सोने पर सुहागा यह की भारत में बनी 'स्माइल पिंकी' ने सर्वश्रेष्ठ डाक्यूमेंटरी [लघु कथानक ] का आस्कर जीता। जब मैं यह पोस्ट लिख रही हूँ टीवी चैनलों पर लॉस एंजेल्स के कोडक हॉल में ऑस्कर समारोह की कवरेज पेश की जा रही थी...बीच में ऑस्कर की तमाम श्रेणियो के अवार्डों की घोषणा रह -रह कर ब्रेकिंग न्यूज़ के रूप में चल रही थी....यदा कदा याद दिलाया जा रहा था की 'स्माइल पिंकी' की प्रविष्टि ने भी ऑस्कर भारत की झोली में डाला है...अखबारों को तो कल सुबह तक इंतज़ार करना पड़ेगा । उनकी वेबसाइट पर फ्लैश में भारत को मिले ऑस्कर की सूचनाएं रन कर रही हैं। भले ही अमिताभ ऑस्कर को भाव न देते हों ...पर यहाँ पर 'लगान' फिल्म की याद आती है...जिसमें भद्र पुरुषों के ब्रितानी खेल में हिन्दुस्तानी किसान उन्हीं के खेल नियमों पर मात देकर लगान करवा लेते हैं...इस बिन्दु को राष्ट्रवादी नज़रिए से न देखा जाए तो ऑस्कर का अन्तराष्ट्रीय अवार्ड भी पश्चिमी सिनेमा के बरक्स हिन्दुस्तानी सिनेमा के रेकोग्निशन का सवाल बन जाता है...जिसे अपने सिने मापदंड हैं।

इस बीच एक बहुत बड़ा फर्क यह देखने को मिला की 'स्लमडाग मिलेनियर' को उतना हाईलाईट नही किया जा रहा है, जितना की वेटेज 'स्माइल पिंकी' को दी जा रही है। सुर्खिया भी 'जय हो' से ही पटी हुई हैं...और 'स्माइल पिंकी' की सफलता को कही सप्लीमेंट्री रिजल्ट की तरह सुनाया जा रहा है.वज़ह साफ़ है.'स्लमडाग मिलेनियर' ने प्रचार तंत्र पर सब कुछ झोंका है...दूसरा भारत में वृत्तचित्रों का मॉस मार्केट नही हैं...किसी भी राह चलते व्यक्ति से आप फिल्मों की अच्छी -खासी जानकारी पा सकते हैं॥पर वृत्तचित्रों के बारे में पूछे जाने पर बुद्धिजीवी वर्ग के नुमाइंदे भी गर्दन घुमाने लगते है...कॉलेज स्टूडेंट्स तो हाथ खड़े कर देते हैं.

डॉक्युमेंटरी के साथ यह संकट रहा है की यह कम से कम भारत में तो एक जन विधा के तौर पर लोकप्रिय नही है...साहित्य की हालत तो फिर भी कही बेहतर है...प्रकाशक पाठक के साथ मार्केट तो किसी तरह बना हुआ है...मूलतः डॉक्युमेंटरी को पाँच तरह के मकसद के लिए बनाया जाता है...सरकारी संस्थाओं की जरूरतों जैसे स्थापना वर्षगांठ, या किसी अजीमुश्शान शख्सियत की जिंदगी पर, कारपोरेट फिल्म /विज्ञापन शूट के तौर पर, आन्दोलनधर्मिता के साक्ष्य के तौर पर और कुछ डिस्कवरी-नेशनल ज्योग्राफिक ,हिस्ट्री चैनल इत्यादि के प्रोग्राम कंटेंट के तौर पर और ज्ञान दर्शन, अतुल्य भारत के अकादमिक-सांस्कृतिक प्रोमोशनल सामग्री के तौर पर। ज्ञानपीठ ने साहित्यकारों पर वृत्तचित्रों की श्रंखला सीडी जारी की है.

आमतौर पर अन्दोलान्धर्मी डॉक्युमेंटरी प्राइवेट स्क्रीनिंग की जाती है.... और अगर चंद खुशनसीब डॉक्युमेंटरी की पब्लिक स्क्रीनिंग होती भी है तो उसे फिल्म की तुलना में नए औडिएंस नसीब नही होते हैं....उसके औडिएंस उतने ही लोग होते हैं जो डॉक्युमेंटरी फॉर्म को पहचानते हैं या फिर विषय विशेष की डॉक्युमेंटरी की खासियत से वाकिफ होते हैं।दूसरा डॉक्युमेंटरी का काम भी असंगठित कार्य-क्षेत्र है...इसलिए फ्रीलांस डॉक्युमेंटरी निर्माता उसके प्रमोशन के मीडिया कैम्पेन रन नही कर पाते...अपना ही कैमरा लेकर प्रोजेक्टर का भी ख़ुद ही इन्तेजाम करने वाले डॉक्युमेंटरी मेकर इसीलिए 'जो घर उजारो आपनो , चले हमारे साथ' या 'शौक सरे सामां बाज़ार निकला' बतर्ज़ डॉक्युमेंटरी मेकिंग मेहनत के सात-साथ रिसर्च की भूख की भी डिमांड करता है.

डॉक्युमेंटरी को कॉमर्शियल मीडियम बनना चाहिए या नही इस सवाल से ज्यादा जरुरी है की फिल्म की तरह डॉक्युमेंटरी मेकिंग को भी पाठ्यक्रमों का हिस्सा होना चाइये...उस तरह से नही जिसमें फिल्म बनने की पहली ट्रेनिंग डॉक्युमेंटरी निर्माण से ही होती है॥बल्कि उस तरह से जिसमें उस पर स्वायत्त तरीके से बहस की जा सके...उसके भूत-वर्तमान-भविष्य का ग्राफ -मानचित्र तैयार किया जा सके..कई फिल्मकार भी पहले डॉक्युमेंटरी मेकर ही होते हैं और साइड बिज़नस के तौर पर डॉक्युमेंटरी भी समांतर रूप बनाते हैं। विज्ञापन > डॉक्युमेंटरी > फिल्म को चंद सेकंड से कुछ घंटो की कैनवस पर देखें और नाट्यकर्मी > फिल्माभिनेता और प्रिंट पत्रकार > टीवी पत्रकार मीडिया के हाइरार्की के साथ व्यावसायिक पदोन्नति के भी पड़ाव बन जाते हैं.

निसंदेह 'स्माइल पिंकी' को ऑस्कर मिलना डॉक्युमेंटरी के रेगिस्तान में एक मरुद्यान की भांति है..अगर इससे डॉक्युमेंटरी विधा को केवल फ़िल्म समारोहों से बाहर भी गंभीर जन अभिरुचि पैदा होती है..तो इस लिहाज़ से ऑस्कर संजीवनी बूटी है। पोस्ट लिखे जाने तक 'स्लमडाग मिलेनियर' को आठ ऑस्कर मिल चुके थे.

Thursday, February 19, 2009

प्रोमो पर सेंसर की कैंची

ना आना इस देस लाडो का नया प्रोमो टीवी पर चल रहा है. पुराने प्रोमों पर सरकारी और गैर- सरकारी आपत्ति के चलते उसे हटाकर नए प्रोमो को लाया गया । इसमें कोई दो राय नहीं की पुराना प्रोमो ज्यादा असरदार था या कहें की झकझोर कर रख देने वाला था...पर सवाल यह उठता है की क्या गैर -सरकारी आपत्तियां उन लोगों द्वारा दर्ज की गई थी जो यह मानते हैं की कन्या भ्रूण हत्या की घटनाएं ग्रामीण रुढियों की उपज हैं या फिर उन ऊँचें तबकों से आवाजें जो यह कहते है कि आज की सोसाइटी में ऐसी असमानताएं घट रही हैं....कलर्स का फोकस देहाती पृष्ठभूमियों की रुढियों पर है...पर अगर इसी को शहरों के नर्सिंग होम में प्री-नेटल चेक अप के नाम होने वाली कन्या भ्रूण हत्या को शूट किया जाता तो भी क्या ऐतराज जाहिर नही होता...पर यहाँ पर एक चेतावनी यह साफ़ हो गई है कि आगे से टीवी सीरियल के निर्माताओं को भी फिल्मों की तरह सेंसरशिप से गुज़रना पड़ सकता है।

विज्ञापनों से भी अभी सख्ती से पेश आना प्रदर्शित भी है....शीतल पेयों और शराब बियर के विज्ञापन में जिस तरह से ऐडवेंचर फिल्माएं जातें है..मोटर साइकिल के करतब नुमा स्टाइल को जितनी स्पोर्टी स्प्रिट के साथ पेश किया जाता है...हैल्थ ड्रिंक्स से महामानव बनने के जो दावे पेश किए जाते हैं...उनकी तफ्तीश अभी तक प्रसारण मंत्रालय ने नहीं की है..और अगर कोई डिस्क्लेमर या सूचना प्रदर्शित भी होती है तो वो इतने कम समय के लिए होती है कि उसे पूरा पढ़ पाना अक्सर असम्भव होता है...तिस पर जो ५-७ साल के छोटे बच्चे विज्ञापन देखते है..क्या उनकी लिखित भाषा की नींव इतनी मज़बूत हो चुकी होती है...कि वो उस वैधानिक चेतावनी को पढ़ पाएं...आमतौर पर छोटे बच्चों के साथ बड़े लोग भी विज्ञापन को उसके टेक्स्ट के बजाय ऑडियो-विडियो से ही रिकाल करते है....इसीलिए बालिका वधु सीरियल के क्रेडिट रोल से पहले दिखाए जाने वाले राष्ट्रीय सर्वे के नतीजों को कोई इतनी तीव्रता से ग्रहण नही कर सकता जितना कि कार्यक्रम के अंत में लिखित और वाचित पंक्तियों पर सहज रूप से ध्यान जाता है।


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Govt wants foeticide show promo taken off air
The Women and Child Development Ministry on Tuesday asked TV channel Colors to withdraw the promo of its new serial Na Aana Iss Des Lado. The promo shows a group of men drowning a new born girl in a vessel and a man shouting “next year, give me a son”.
The ministry termed the promo derogatory towards the girl child, and stated that it tends to support the belief that the sacrifice of a newborn girl may result in the birth of a boy.


Stating that the intention behind the serial may be to create awareness about ‘socially relevant’ issues, joint secretary in the ministry Kiran Chadda, in her letter to the channel, said the pre-launch campaign appears to glorify the rampant practice of killing girls.



India has only 927 girls below 6 years of age for every 1,000 boys with states like Delhi, Punjab, Haryana, Rajasthan and Gujarat having a sex ratio much below the national average.

Colors said it would address the issues raised as and when it receives the notice. Lado deals with female foeticide, rampant the northern and central India.



“The promotion campaign on Colors shows a negative aspect of our society but fails to alert people against such practices,” a ministry official, who was not willing to be quoted, said.

The letter, a copy of which has been sent to the I&B Ministry, also asks channels to be careful while portraying sensitive issues like foeticide. It is the result of protests by several women and child organisations. “Everytime the promo is shown on TV, I have to change the channel... It is devastating,” said Jalal P. Jha, a blogger on wordpress.com.



Chetan Chauhan, Hindustan Times,November 4, 2006

2008 की सर्वश्रेष्ठ कविता

THE BEST POEM OF 2008

This poem was nominated by UN as the best poem of 2008, Written by an African Kid.

When I born, I black

When I grow up, I black

When I go in Sun, I black

When I scared, I black

When I sick, I black

And when I die, I still black


And you white fellow

When you born, you pink

When you grow up, you white

When you go in sun, you red

When you cold, you blue

When you scared, you yellow

When you sick, you green

And when you die, you gray

And you calling me colored?

Sunday, February 15, 2009

बीके यानि माडर्न टीचिंग ऐड

जीके बनाम बीके यानी सामान्य ज्ञान के बरक्स मुबैया सिनेमा का ज्ञान ....कल तक जनरल नोलेज का मतलब एक बड़े अनुपात में राजनीति , इतिहास, विज्ञानं, गणित, भूगोल जैसे पारंपरिक अनुशासनों से लिया जाता था...फिर कंप्यूटर भी शामिल हुआ...और सांकृतिक ज्ञान के नम पर धार्मिक, पौराणिक साहित्य, कलाओं (लोक नृत्य , साहित्य, नाटक ) से ही सवाल पूछे जाते थे....पर फिल्मों से सम्बंधित सवाल अपवाद ही हुआ करते थे। पर आज के क्लास रूम टीचिंग में फिल्में शिक्षक की रुखी आलोचना-समीक्षा पद्धतियों का समझाने में टीचिंग ऐड का काम करती हैं...सम्भव है छात्र ने तमाम शास्त्रीय पुस्तकों का अध्यन न किया हो...परप्रोमो फिल्मों का ज्ञान चाहे-अनचाहे उसके सामने किसी न किसी फॉर्म में आता-जाता रहता है....अखबारों में फिल्म समीक्षा के जरिये कथानक तो पता चल हे जाता है...गीतों के लिए ऍफ़ ऍम रेडियो है ना....टीवी पर प्रोमों आते रहते है...केबल की मेहरबानी है तो नई-पुरानी फिल्मों का प्रदर्शन होता ही रहता है। तिस पर आज किसी भी नई फ़िल्म के बजट का एक बड़ा हिस्सा प्रचार-प्रसार को भी समर्पित होता है जिससे काफी हद तक बीके में वृद्धि होती है।

आज भी फ़िल्म अध्ययन को मीडिया विधा या सांस्कृतिक अध्ययन का विषय मान कर इसे अन्य अनुशासन के विद्यार्थियों के लिए गैर-जरुरी समझा जाता है....पर सच्चाई यह है की भले ही सिनेमा को कोई फंतासी दुनिया माने पर 'साहित्य रूपी दर्पण ' की भांति ही इस शीशमहल में समाज के कई अक्स नज़र आते हैं। फेमिनिस्म को समझाना हो तो मिर्च-मसाला, डोर, फायर, खून भरी मांग किसी 'लिहाफ ', कस्तूरी कुंडल बसै', 'छिन्नमस्ता ' के टेक्स्ट से कम नही है..उतर-औद्योगिक समाज का प्रतिबिम्बन चार्ली चापलिन की मूक फिल्मों में है, भारत कुमार उर्फ़ मनोज कुमार अभिनीत फिल्मों में राष्ट्रवाद्द का एक 'नया दौर' है जो 'नमस्ते लन्दन' तक चला आता है . .सारांश, अर्धसत्य, अंकुर, मंथन जैसी फिल्मों में यथार्थ परिस्थितियों की दस्तक क्या किसी 'आधे-अधूरे ' या 'परिंदे ' से कम है क्या ?...आतंकवाद, साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार' को ' वेडनेस डे ', ' बोम्बे ', गंगाजल' के उदाहरणों से भी समझा जा सकता है....'देव डी ', 'ओये लकी लकी ओये ' तो विशुद्ध उतर-आधुनिक मानव की सामयिक उपभोक्ता वादी चेतना का अंकन है। अमीरी-गरीबी की डिबेट का मार्क्सवादी आग्रह का समाजवादी लक्ष्य फिल्मों के बहु-प्रचलित फोर्मुलों का विषय नही रही है। 'तारे ज़मीं पर ', 'दोस्ती', 'जाग्रति ' बाल मनोविज्ञान की बेहतरीन पेशकश हैं।

दलित विमर्श, स्त्री विमर्श जैसे अस्मितामूलक विमर्शों से अलग मीडिया विमर्श तमाम विधाओं, विमर्शों, व्यक्तित्वों , समाजिक्ताओं का समेकित रूप है...पर आधुनिक मीडिया विमर्श को भी हमने कई चौहद्दियों में बाँध रखा है...मसलन क्षेत्रीय सिनेमा का स्वर रीमेक बनाते समय और राष्ट्रीय पुरस्कारों की घोषणा करते समय याद आती है, उर्दू जबान को तो अलग अदब, इल्मी मकाम हासिल है...और हिन्दी में उर्दू हाय-हाय के भारतेंदु के चश्मे से देखने वालों ने रामचंद्र शुक्ल और महावीर प्रसाद के मानक हिन्दी में हिन्दुस्तानी ( हिन्दी + उर्दू ) के गंगा जमुनी भाषाई विरासत को अवरुद्ध करने की कोशिश की। अगर लिपि / रस्मुलखत के अन्तर को न देखा जाए उर्दू भी हिन्दी की ही सरजमी की पैदाइश है। इसी भाषाई राजनीति के चलते 'पाकीजा ' जैसे उर्दू अल्फाजों से भरपूर फिल्म को हिदी सिनेमा के श्रेणी से राष्टीय पुरस्कारों के लिए नामांकित सूची में दर्ज किया जाता है....या तो उसे उर्दू की श्रेणी में रखा जाना चाहिए था या फिर तथाकथित हिन्दी सिनेमा को हिन्दुस्तानी सिनेमा की संज्ञा दी जानी चाहिए....और अगर हिन्दी सिखाने के कोचिंग गुरु के तौर पर फिल्मो को देखा जाए तो हैरानी होगी की बिना ककहरा जाने लोग कैसे भाषा सीखते है...और यही तो भाषा विज्ञानी ससयुर के लांग ( भाषा ) का परोल ( वाक् ) है।

Monday, February 9, 2009

जिन सी आई ई स्कूल नही वेख्या

कॉलेज में आकर बसंत से कोई खास जुडाव तो महसूस नही होता सिवाय इसके की डेल्ही यूनिवर्सिटी के पार्कों में खिलते हुए फूलों से रौनके बहार आ जाती है..किसी संत ने कहा था इन्सान हमेशा असंतुष्ट रहता है...गर्मी होती है तो कुम्हला जाता है...मौसम को कोसता है...सर्दी होती है तो अकड़ जाता है...ज्यादा सर्दी को रोता है..इस पर नसीरूदीन का जवाब होता है...बसंत से जिसे परेशानी हो वो बताये...तो बसंत का मिजाज़ मध्यमार्गी होता है. स्कूल में बसंत का मतलब होता था फ्लावर शो में भागीदारी , सहभोज की तैयारियां , खेल दिवस और वार्षिक परीक्षा की करीबी का अहसास जो डर से ज्यादा खुशी देता था क्योंकि उसके बाद भी उत्सव चलता रहता था.. एक्साम के बाद वार्षिकोत्सव की तैय्यारी जो होनी थी.


डिपार्टमेंट ऑफ़ एजूकेशन के विद्यालय सी आई ई एक्सपेरिमेंटल बेसिक स्कूल में मिडल क्लास तक शिक्षा ग्रहण की। डेल्ही यूनिवर्सिटी हर साल फूल वालों की सैर की मौके पर फ्लावर शो आयोजित करती है जिसमें स्कूलों की तरफ से क्राफ्ट्स का प्रदर्शन भी किया जाता था...हमारे टीचर्स बच्चों से चीजे बनवा कर या ख़ुद बनाकर छात्रों की नाम के प्रविष्टियाँ भेज देते थे। उसमें इनाम भी मिलता था। सहभोज स्कूल में मनाया जाने वाला वार्षिक प्रीतिभोज था जिसमें बड़ी कक्षाओं के छात्र और अध्यापक मिलकर भोजन बनते थे और बाद में सब लोग मिलकर पंगत में बैठकर उसका आनंद लिया करते थे.उसकी तैयारी भी एक दो दिन पहले से शुरू हो जाती थी.मिटटी में गहरे गड्डे चूल्हे बनने के लिए खोदे जाते थे.बच्चों से घर से चाकू- चकला बेलन मंगाया जाता था .किसी क्लास को भंडारघर में तब्दील कर देते थे तो किसी में पुरियां बेलने के लिए आटे के बोरों से लेकर पराते जमा की जाते थी. किसी कक्षा में आलू छीलने से लेकर मसाले के लिए टमाटर, प्याजों की कटाई का काम किया जाता था...आलू की सब्जी, मिक्स वेज और पुरी के बाद डेज़र्ट में हलवा बतौर प्रसाद बांटा जाता था। लोग अपने बर्तन ख़ुद ही धोते थे ...बड़े बर्तनों को रगड़ने की जिम्मेदारी से लेकर पानी भरने काम बड़े लड़कों को दिया जाता था .



स्कूल के सहभोज के बाद अगला भोज का निमंत्रण सी आई ई महाविद्यालय के ओर से आता था...बी एल एड, बी एड के छात्र-शिक्षकों द्वारा आयोजित इस लंगर का सभी को इंतज़ार रहता था...लंगर की खीर प्रीतिभोज की स्पेशल डिश होती थी। इसके कुछ दिन बाद स्पोर्ट्स डे मनाया जाता था...जिसमें पद सञ्चालन के लिए रोज़ सुबह प्राथना में जीरो पिरिओद में कदमताल का अभ्यास कराया जाता था. स्कूल में छात्रों का दलगत विभाजन होता था। इन दलों के अपने छात्र एवम शिक्षक प्रतिनिधि होते थे॥और बेस्ट दल को भी अवार्ड के तौर पर शील्ड मिलती थी। स्पोर्ट्स डे की विभिन्न प्रतियोगिताएं और सालाना परीक्षाओं के साथ-साथ विभिन्न सांकृतिक गतिविधियों के विजेताओं को वार्षिकोत्सव में पुरस्कृत किया जाता था...आमतौर पर पन्द्रह मार्च तक परीक्षाएं खत्म हो जाती थी और ३१ मार्च को वार्षिकोत्सव मनाया जाता था. इसलिए बीच के पन्द्रह दिनों में स्कूल बिना शैक्षिक उद्देश्य के सालाना जलसे में प्रस्तुत किए जाने वाले कार्यक्रमों के रियाज़ के लिए जाते थे...कुल मिलाकर बसंत के मानी का मतलब सामूहिक सृजन का उत्सव बनता है।