Monday, March 30, 2009

शिवखोरी - जम्मू का एक कन्दरा तीर्थ


जम्मू वैष्णो देवी की यात्रा तो तकरीबन दस साल पहले भी की थी पर इस बार शिवखोरी जाना नया अनुभव रहा है...कटरा से ८० किमी की दूरी पर रन्सू इलाके का यह तीर्थ लगभग पांच साल पहले तक सवेंदनशील क्षेत्र माना जाता था क्योंकि यह राजौरी-पुँछ सेक्टर से सटा हुआ है...उस समय पर्यटकों को पहचान पत्र रखने की जरुरत रहती थी...क्या पता कब पुलिस चेकिंग होने लगे।


२-६ मार्च समय और बेहतरीन मौसम का साथ सोने पर सुहागा साबित हुआ क्योंकि यह आमतौर पर स्कूलों में परीक्षा का समय होता है जिसकी वज़ह से यात्रियों की संख्या गर्मियों की अपेक्षा आधी ही रह जाती है . ग्रीष्मावकाश के समय रोजाना लगभग १ लाख यात्री वैष्णो देवी के दर्शन करते है...साथ ही सर्दी-गर्मी के मिले-जुले माहौल में पहाडों पर पदयात्रा करने का अपना ही लुत्फ़ है.



२ की रात को पौने नौ बजे नयी दिल्ली-उधमपुर जाने वाली उत्तर जनसंपर्क क्रांति से हमारा १२ सदस्यीय दल सुबह ६ बजे जम्मू तवी रेलवे स्टेशन पर उतरा ..वहां से जम्मू और कश्मीर राज्य परिवहन की बस पकड़ कर कर कटरा पहुंचे. सत्य होटल में ६०० रुपये की दर से दो रात के लिए कमरे लिए...एक महिलाओं के लिए और एक पुरुषों के लिए. कमरे में सामान रखकर नित्यकर्म के बाद करीब ११ बजे वैष्णो देवी भवन के लिए चढाई शुरू की...चूँकि हमारे ग्रुप में एक ७१ वर्षीय बुजुर्ग महिला भी थी , इसीलिए भवन पहुँचने में औसत ३-४ घंटे से अधिक समय लग गया...अनुरोध करने के बावजूद उन्होंने घोडे-खच्चर-पालकी पर सवारी करना स्वीकार नहीं किया...उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए ४:३० बजे गुफा में पिंडियों के दर्शन किये. सुबह से सिर्फ चाय का ही पी थी ..५ बजे भोजन करने के उपरांत वाया भैरों मंदिर होते हुए आदिकुमारी की गुफा में ९ बजे करीब बजे कतार में लगे. इसी बीच में सिने तरीका सुष्मिता सेन के अपनी पुत्री के साथ वीआइपी दौरे के चलते ४५ मिनट और अपनी बारी का इंतजार करना पड़ा ...हमारे सफ़र के गाइड (गाइड इसलिए की वो पिछले १५ वर्षों से लगातार दर्शनार्थ वहां जाते रहे हैं ) महेंद्र भैया ने चुटकी ली ...लो तुम्हे एक और देवी के दर्शन करा दिए...मेरे भाई ने उससे हाथ मिलाया था...मैंने मजाक में कहा अब हाथ मत धोना...अंतत साढ़े ग्यारह बजे तक हमारे समूह ने दर्शन कर लिया था..तत्पश्चात अपने रूम पर १ बजे करीब पहुंचे ..रास्ते में ही रात का खाना खा लिया था. 2 बजे तक सब बिस्तर पर निढाल हो चुके थे.


रात को १ घंटे बाद ही मेरी नीद उचट गयी थी...और में बिस्तर पर बैठ गयी....कमरे की खिड़की के चारो परदे पूरी तरह मिल नहीं पाए थे...इसलिए उनके बीच शीशे से पार सामने आदि कुमारी की की तरफ वाला पहाड़ की ओर देखकर वक़्त बिताने की कोशिश करने लगी...औरों की नींद ख़राब न हो इसका भी बराबर ख्याल रखना चाहा ...समय का अंदाजा लगाने के लिए चिडियों की चहचाहट की ओर कान लगे थे....क्योंकि अमूमन ५ बजे के बाद उनका प्रात कलरव की स्वरलहरियां गूंजती है। ऐसे वक़्त में उर्दू का एक शेर 'तुम आये हो न शबे इन्तेज़ार गुजरी है, तलाश में है सहर बार-बार गुजरी है ' बरबस याद आ गया. बीच में मम्मी ने करवट बदलते हुए मुझे देखा...मैंने पूछा क्या में नहाने चली जाऊं...फिर सबसे पहले मैंने ही स्नान किया...तब तक ६ बज चुके थे....महेंद्र भैया ने रात को सबको अगले दिन जल्दी उठ कर रेडी रहने की हिदायत दी थी क्योंकि शिवखोरी के लिए निकलना था...फिर ७ बजे तक भैया तैयार होकर एक १२ सीटर बस बुक करने के लिए चले गए....९:३० बजे गाडी होटल के आगे खड़ी थी.


५ घंटे के सफ़र के बाद पाकिस्तान की ओर बह रही चेनाब नदी पार करते हुए हम शिवखोरी की चढाई के लिए बस से उतरे ....होटल वाले को खाने का मेनू बताकर चले गए थे क्योंकि खाना वहां २ घंटे पहले आर्डर करना पड़ता है। १:३० बजे होटल से २० २५ कदम की दुरी से श्राइन बोर्ड द्वारा निर्मित ४.५ किमी के यात्री मार्ग से ऊपर गुफा में पहुंचे.३ बजे तक दर्शन करके वापस होटल पहुँच चुके थे....घाटी से सटी हुए इस इलाके में गेहूं की फसल लहलहा रही थी....खैर के कांट-छाँट किये हुए काले पेड़ आकाश की ओर सर उठाए थे...लाल फूलों से लदे सेमल के वृक्ष हरे भू दृश्य में सुन्दर कंट्रास्ट पैदा कर रहे थे....५ बजे वहां से वापस कटरा के लिए रवाना हुए.



फिर रास्ते में रियासी इलाके में एक पार्क था....उसमें शिवखोरी के एक और मंदिर और छोटे से ताल में मछलियाँ थी....हरे-नीले पानी में मछलियाँ भी मयूर रंगों में चमक रही थी....उसी पार्क के पीछे की तरफ एक पहाड़ था जिसकी चोटी पर एक किला दिखाई दे रहा था...कहते हैं कि वो किला जम्मू के किसी राजा का था.



बस में डोगरी गन्ने चल रहे थे जिसकी शब्दावली में पंजाबी शब्दों के वर्चस्व था...तो लय वही जानी पहचानी पर्वतीय गीतों की थी। बस चालक ने बताया हिन्दू लोग डोगरी को हिंदी में और मुस्लिम लोग उर्दू में लिखते हैं ....बोलने में तो एक ही है। वापसी में नव दुर्गा की गुफा के दर्शन किये। रात को ८ बजे होटल पहुंचे । फ्रेश होकर डिनर के लिए मनोरंजन रेस्तरां में गए। थोडा-बहुत खरीदारी की, पर प्रसाद की सामग्री जम्मू तवी से लेने की योजना थी।

अगले दिन १२ बजे कटरा को अलविदा कर रेलवे स्टेशन गए। रेलवे परिसर के क्लोक रूम में सामान जमा किया । ट्रेन ८:३० की थी इसलिए स्टेशन से आरटीवी नुमा छोटी बस से ५ रुपये प्रति व्यक्ति की दर से रघुनाथ मंदिर गए। भारत का सबसे बड़ा शिवलिंग के अलावा एक पारदर्शी शिवलिंग भी इसकी विशेषता है। दोपहर के भोजन के बाद वहां की प्रसिद्ध चोकलेट बर्फी जो काफी कुछ स्वाद में बाल मिठाई से मिलती जुलती है, लेकर खील अखरोट (अखरोट तो वैष्णो देवी के प्रसाद की पहचान बन चुकाहै) इत्यादि प्रसाद की सामग्री ली।फिर वापस ७ बजे रेलवे स्टेशन पहुंचे। अपना सामान वापस लेने के बाद ४५ मिनट तक प्लेटफोर्म के फर्श बैठ कर ही बिताये । हमारा प्लेटफोर्म नोम्बर ९ था पर वहां काफी भीड़ थी, इसलिए हम ८ पर चले गए और १५-२० मिनट पहले वापस अपने प्लेटफोर्म पर आकर दिल्ली की राह पकड़ी.


Sunday, March 29, 2009

छोटे -छोटे शहरों से....हम तो झोला उठा के चले

कुछ दिन पहले 'मुझे चाँद चाहिए' सुरेन्द्र वर्मा का नायिका प्रधान प्रख्यात हिंदी उपन्यास पड़ते हुए दो हिंदी फिल्में 'फैशन' और 'मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूँ' अनायास याद आ गयी....एक मीडिया कर्मी के लिए तो फिल्में टेक्स्ट होती हैं...पर एक साहित्य के अध्येता के लिए भी फिल्में कितने कारगर तरीके से जीनियोलोगी बनाती चलती है, को जानना दिलचस्प होता है....नायिका वर्षा वशिष्ठ भी 'मेघना माथुर' और 'मोहिनी' उर्फ़ चुटकी की तरह करियर के लिए महत्वकांशी तो है, पर छोटे शहर की लड़कियों का मुंबई को कर्मक्षेत्र बनाने तक का सफ़र में ग्लैमर - सिनेमा और फैशन के प्रति उसका दृष्टिकोण स्ट्रेटेजिक डिसीजन्स के चलते अलग होता है.

बचपन की सिलबिल से 'यशोदा' के ओल्ड फैशन नाम से छुटकारा पाकर 'वर्षा वशिष्ट' का चुनाव करती है। वशिष्ठ उपनाम चुनने के पीछे का तर्क के ब्राहमण जाति की ऊँची प्रतिष्ठा से जुडा हुआ है. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रवेश पाने के लिए घरवालों की मुखालफत करती हुई वर्षा की अगली मंजिल सिनेमा है...जहाँ गाहे-बगाहे वह रंगमंच के सौन्दर्यबोध और लाइव परफोर्मेंस बनाम चलताऊ और कमाऊ के साथ रिटेक की तुलना करती है, पर उसकी समझदारी की दाद देनी पड़ती है कि न तो वह व्यावसायिक फिल्मो से परहेज करती है और न ही यथार्थवादी सिनेमा को नकारती है और साथ ही रंगमंच में भी सक्रिय रहती है. दोनों के बीच शानदार संतुलन कायम करते हुए वह 'शबाना ' और ' नसीर ' की याद दिलाती है. गौरतलब है की तेजस्विनी कोलाह्पुरी (पद्मिनी कोल्हापुरी की छोटी बहन )अभिनीत इस उपन्यास पर रजा बुंदेला ने सीरियल भी बनाया गया था.


उसका गजरौला की मोहिनी की आदर्श माधुरी की भांति कोई आइकन नहीं है और न ही वह चंडीगढ़ की मेघना माथुर की भांति सफलता के लिए समझौतापरस्त है। रंगमंच की बारीकियों और उसके प्रकार्य की आधारभूमि एक अनुशासन से तो परिचित कराती है ही, उसके साथ पोपुलर मीडियम सिनेमा की अपनी शर्तों और फोर्मुलों के साथ 'इमेज' की सीमाओं को भी जगजाहिर करती है. इसी क्रम में मार्शल मक्लुहन के 'रियर व्यू मिरोर ' फेमोमेनन की भी पुष्टि करती है जिसके तहत तकनीकी विकास के क्रम में हर विधा अपनी पूर्ववर्ती विधा की तुलना में कमतर आंकी जाती है, पर एक सच यह भी है की दृश्य कला पर आधारित विधाओं के लिए रंगमंचीय बोध फंडामेंटल की तरह काम करता है. यूँ ही नहीं भारतीय फिल्म और टेलिविज़न संस्थान , पुणे के पाट्यक्रम में रंगमंच को जोड़ा गया है. आज राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सिनेमा में पदार्पण कर चुके रंगकर्मियों की लम्बी फेहरिस्त गिनाई जा सकती है.


इससे पहले शोबा डे के अंग्रेजी उपन्यास स्टारी नाइट्स का हिंदी रूपांतर 'सितारों की रातें ' भी पड़ा. आशारानी (देविका रानी की प्रॉक्सी) के तौर पर दक्षिण भारतीय अभिनेत्रियों का हिंदी सिनेमा में काम करने के चलन पर रौशनी डाली है. निर्देशकों से लेकर काम दिलवाने वाले एजेंटों की कार्य प्रणाली को करीने से पेश करती हुई इस कृति में में अभिनेत्रियों के प्रति 'शो पीस ' की भांति काम लिए जाने के भी ब्यौरे दर्ज हैं. दक्षिण भारतीय फिल्मों के काम करने के तरीकों और स्टूडियो कल्चर को भी काफी हद तक संबोधित करने की कोशिश कि गयी है.

Tuesday, March 17, 2009

टीवी की बेटियाँ - मुनाफे की रणनीति का नया फार्मूला

सबकी लाडली बेबो (स्टार प्लस) , मेरे घर आई एक नन्ही परी (कलर्स), दोनों ही धारावाहिक ऐसे परिवारों को दिखाते हैं जिनमे कई पीदियों से कोई लड़की पैदा नहीं हुई। आमतौर पर यह देखा गया है की एक बेटी होने के बाद दूसरी बेटी की चाहत नहीं होती....पर बेटों की चाहत बरक़रार रहती है....बेटा पाने की आस में कन्या भ्रूण की हत्या तो होती ही है, फॅमिली प्लानिंग के साइड इफेक्टस भी लड़कियों के हिस्से में ही आये। जिन्दा रही तो घर-बाहर दोनों ही मोर्चों पर गैर-बराबरी का सलूक आम है। चीन में जनसंख्या वृद्धि दर सिफर करने के लिए बनाये गए नियमों के चलते एक संतान के रूप में भी माता पिता बेटे की ख्वाहिश पाले हुए हैं.....हालाँकि बेटे के प्रति प्यार का मतलब हमेशा ही कन्या के प्रति बेरुखी का रूप नहीं होता. ऐसे भी कई परिवार है जो दोनों ही लिंगो की संताने चाहते हैं...पर आज का मौजूं यह है कि क्या कन्या के जन्म को प्रोत्साहन देने के सरकारी गैर सरकारी , सामाजिक सांस्कृतिक मंच उसे केवल प्रकृति में मानव जाति के यौन अनुपात के संतुलन के लिए बढावा दे रहे है, या 'लड़किया कम होगी तो दुल्हन कहाँ से लाओगे ' मार्का जनहित में जारी विज्ञापन की भांति के बहन, बेटी, बहु , पत्नी के पारिवारिक किरदारों की जरुरत पूरी करने के तौर पर देखी जा रही है....या फिर बेटो की अधिकता से होने वाली एकरूपता में परिवार में विविधता लाने के लिए उसकी उपस्थिति होनी चाहिए .....एक मानुषी के रूप में उसकी जरुरत कब महसूस होगी? कब उसे मानवी के नाते जीने का अधिकार मिलेगा...इन सवालों के जवाब बाकी है !

'अनाड़ी, 'राजा' फिल्मों सरीखी कई भाइयों की इकलौती बहनों के ऊपर भी कई पहरे लगाये जाते है....उनके जीवन में डू/ डोंट को तय करने में भाइयों की भूमिका बड़ी मजबूत दिखाई देती है....इन सीरियलों की कहानी आगे किस करवट बैठेगी , यह तो बाद में पता चलेगा....पर धारावाहिकों में कन्या को प्रमोट करना भी विशुद कॉमर्शियल एजेंडा है ..उसी सौन्दर्य प्रसाधनों के विज्ञापन की तरह जो महिलाओं के रंग को निखारने के बाद अगला टारगेट कस्टमर पुरुषों को बना रहा है. यही सास - बहु धारावाहिकों से उकता गए दर्शकों को बांधे रखने/ टीआरपी उठाने का नया फार्मूला है.

Monday, March 2, 2009

अछूत(आ) भारत - अलगाए लोगों की दास्तां

इंडिया अनटच्ड स्टोरीज़ ऑफ़ पीपल अपार्ट वृत्तचित्र की स्क्रीनिंग का एक दौर सफ़र (सोशल एक्शन फॉर एडवोकेसी एंड रिसर्च ) गैर-सरकारी संस्था द्वारा भीमराव आंबेडकर कॉलेज , दिल्ली विश्वविद्यालय में २६ फ़रवरी २००९ को आयोजित किया गया...निर्देशक स्टालिन केo ने १०८ मिनट की इस डॉक्युमेंटरी में अस्पृश्यता और जाति व्यवस्था की समस्या को कई कोणों से सामने लाने की कोशिश की है। हिंदी, भोजपुरी, गुजराती, पंजाबी , तमिल , तेलुगु , मलयालम ज़बानों के स्थानीय रंग के साथ अंग्रेजी उप-शीर्षकों के माध्यम से दृष्टि संस्था ने प्रोडक्शन का कार्यभार संभाला है तो नवसृजन संस्था ने इसके प्रदर्शनों की श्रंखला को बखूबी निभाया है।

४ साल के अथक परिश्रम से निर्मित इस फिल्म में भारत के ८ राज्यों और चार धर्मों में जाति प्रथा की भयावह स्थिति को करीब से सेलुलोइड पर उतारा है....५००० साल से चली आ रही वर्ण व्यवस्था के शास्त्र सम्मत होने के दस्तावेजी आख्यान के बाईट्स और उससे दलितों के ऊपर लगाये हुए प्रतिबंधो के समान्तर सिक्वेंस का फ्रिक्शन जबरदस्त बन पड़ा है। शिक्षा से पैदा होने वाली जागरूकता ने भी दलितों के दर्द को कुछ कम नहीं किया है क्योंकि स्कूलों में भी सवर्ण बच्चे अग्रिम पंक्ति में बैठाये जाते हैं और दलित छात्र बेक बेन्चर्स ही बने रहते हैं...उनसे झाडू लगाने को कहा जाता है...यहाँ तक की एक स्कूल में दलित छात्रों को शौचालय साफ़ करने के लिए मजबूर किया जाता रहा है...ताकि वो अपने पुश्तैनी काम से ही बंधे रह सके। इसकी पुष्टि जेएनयू के छात्रावास में होने वाले कमरों के पार्टीशन के इकबालिया बयानों में होती है ...सफदरजंग के दलित शल्य चिकित्सक को भी महत्वपूर्ण केसों का इंचार्ज नहीं बनाया जाता ...वज़ह साफ़ है ... दलित होने के कारण उनकी योग्यता पर शक किया जाता है।


फिल्म में दिखाया गया है की किस तरह से वे सार्वजनिक वाहनों की सवारियों से वंचित है...वो अगडी जाति के गावों में साइकिल पर सवारी नहीं कर सकते, चप्पले पहनकर प्रवेश नहीं कर सकते। एक दलित मिस्त्री जो सवर्णों के मकानों को बनता है...मकान बनाने के बाद उसमें उसका प्रवेश वर्जित हो जाता है । रेल की पटरी के नीचे आकर मरने वालों की लाशों और मृत पशुओं को ठिकाने लगाने वाले लोग हों या सवर्णों स्त्रियों की प्रसूति में मदद करने वाली दलित दाइयां , इनकी भी हालत कोई बेहतर नहीं है। राजपूत जाति के लोग ताल ठोंककर कहते हैं कि नीची जाति के लोग उनके सामने ऊपर बैठने की हिमाकत नहीं कर सकते।


दलितों ने जाति प्रथा के दुष्परिणामों से बचने के लिए धर्मान्तरण का सहारा लिया , पर वहां भी उन्हें चैन नहीं मिलता...इसाई, इसलाम में भी उन्हें दोयम दर्जा दिया जाता रहा है। कैसी विडम्बना है सिख धर्म के स्थापना के समय पंज प्यारों से उनकी जाति नहीं पूछी गयी पर जाट सिख, वाल्मीकि सिख जैसे जाति विभेद बरक़रार हैं...इसलाम में भी जाति का निषेध है...मस्जिद में यह याद रखा जाता है...पर उससे बाहर आते ही लोग जाति भेद को का बर्ताव करने लग जाते हैं...यही हाल नमाज में नमाजियों की पंक्तियों का भी है...इसीलिए शेख-सैयदों की मस्जिदे भी अलग-अलग हो जाती हैं।


दलित और सवर्णों के अंतरजातीय विवाहों की बात तो दूर की कौडी है...खुद दलितों में भी जाति व्यवस्था की हाइरार्की बनी हुई है...अगडे दलित भी अपने से जाति में कमतर दलितों से सामाजिक सम्बन्ध रखने पर सहमत नही हैं.....आरक्षण के पक्ष-विपक्ष में लोगो की राय दिखाकर निर्देशक ने इस सवाल का जवाब दर्शकों पर छोड़ा है। वृत्तचित्र के एक खंड में अखबारों के वैवाहिक विज्ञापन भी जाति-प्रथा की गहराती जड़ों को दिखाते हैं...जिनमें नगरीय भारत विभाजित है। क्लाइमेक्स फ़िल्म का सबसे बेहतरीन हिस्सा है जिसमें निर्देशक ने पत्रकारों के मानिंद केवल अपनी रिपोर्ट पेश नहीं की है ...बल्कि जाति बंधन के प्रतिबन्ध को तोड़ने की एक पहल के जरिये अँधेरे में लौ दिखाई ...इसीलिए 'आपको कैसा लग रहा है ' के टीवी पत्रकारिता की सीमाओं से एक कदम आगे दलित लड़की को सवर्णों के कुएं से पानी भरकर अपना सर गर्व से ऊँचा करते हुए दिखाया है और एक दलित लड़के का सवर्णों के पेयजल को पीना आत्म-सम्मान की तृष्णा के तुष्टि भाव को चित्रित करता है।


चूँकि डॉक्युमेंटरी ऐसे ज्वलंत पर आधारित थी..जिससे किसी न किसी रूप में हर हिन्दुस्तानी का सरोकार बनता है...चाहे वह किसी भी जाति से ताल्लुक रखता हो...इसलिए चर्चा के दौरान गरमा-गर्मी तो हुई ही ....कई लोग भावुक हो कर रो भी दिए....बहरहाल वृतचित्र की खासियत यही थी की इसके कोलाज की भांति विसुअल्स एंड साउंड बाइट्स किसी के दिलो-दिमाग को उद्देलित करने के लिए काफी थे...और दूर तक मन में कई सवालों की अंतहीन कड़ियों को जोड़ते चले जाते हैं.