Wednesday, October 21, 2009

चित्तौड़ की रानी पद्मिनी का जौहर

एक लंबे अरसे बाद ब्लॉग लिखने का मन हुआ...तो सोचा की अपने ऍम फिल के जारी शोध कार्य से सी ब्लॉगर साथियों को अवगत करा दिया जाए...सोनी टीवी पर सोमवार से गुरुवार रात आठ बजे टेलेकास्ट होने वाला नितिन देसाई के प्रोडक्शन का धारावाहिक 'चित्तौड़ की रानी पद्मिनी का जौहर की सांस्कृतिक निर्मितियां' मेरे लघु शोध प्रबंध का विषय है....हिन्दी साहित्य के अध्येता मलिक मुहम्मद जायसी की कृति पदमावत से परिचित होंगे....मैं उसी को उपजीव्य बनाकर धारावाहिक रूपांतर के साथ मिथकीय धारावाहिकों की एक परम्परा में इस धारावाहिक को भी देखने की कोशिश की। सांस्कृतिक अध्ययन पदधति और माध्यम अध्ययन की स्त्रीवादी आलोचना की मिश्रित कसौटियों को टेलिविज़न विमर्श के परिप्रेक्ष्य में धारावाहिक को डीकोड करने का प्रयास जारी है। चूँकि नितिन देसी फ़िल्म जोधा अकबर को भी बतौर सेट परिकल्पना निर्देशक अपनी सेवायें प्रदान कर चुके हैं...इसलिए सीरियल के कई सिक्वेंस ' जोधा अकबर' का ही प्रतिरूप मालूम होते हैं..शुरुआत में १०४ एपिसोड बनाने की घोषणा की गई थी...परतु अपेक्षित टी आर पी नही मिलने की वज़ह से सीरियल ५० एपिसोड में ही ख़त्म हो गया। धारावाहिक की सभी कड़ियों का ट्रांसक्रिप्शन किया है। तेजस्विनी लोनरी (पद्मिनी) रोहित बक्षी (रतनसिंह ), मुकेश ऋषि (अल्लाउद्दीन खिलजी ) अभिनीत इस धारावाहिक को रामायण की तरह ट्रीट करने की कोशिश भी कई दृश्य प्रसंगों में है...सिंघल द्वीप और चित्तौड़ की सांस्कृतिक विभिन्नताओं को भी उत्तर पश्चिमी भारत बनाम दक्षिण भारतीय तहजीब के अंतरों में देखा जा सकता है....सबसे बड़ी बात पद्मिनी अफगान खिलजी के समक्ष एक हिंदू प्रतिरोध को भी सामने लाती है...अमीर खुसरो का किरदार भी दरबारी कवि का ही बनकर रह गया है..जिसका उपयोग खिलजी कोहिनूर हीरे का पता लगाने के लिए कर रहा है..धारावाहिक में कोई सुग्गा/ तोता नही है....चेतन राघव ही रतनसिंह , नागमती और खिलजी के सामने पद्मिनी का सौन्दर्य वर्णन कर रहा है....कई साथियों ने इसे ओनर किलिंग और सती प्रथा से जोड़ा....पर जब चन्द्र शेखर आजाद अंग्रेजों से मुठभेड़ के दौरान खुद गोली मारकर मृत्यु को गले लगते हैं...और लक्ष्मीबाई अपने सैनिकों को निर्देश देती है की गोरे उनके शव को छूने ना पाए...तो सोचना पड़ता है....की क्या ये महज़ स्त्री जाति के आत्म सम्मान की रक्षा के लिए उठाया गया कदम भर था..अगर ऐसा था तो क्यों कलिंग की रक्षा के लिए स्त्रियों ने शास्त्र उठाये थे जिसकी परिणित बाद में अशोक की युद्ध से विरक्ति में दिखाई देती है...या इसके पीछे सांस्कृतिक राजनीती छुपी हुई थी. इतिहास के विद्यार्थियों ने कहा की उस समय चित्तौर से होकर ही मार्ग जाता था...इसलिए भी चित्तौर को हमले झेलने पड़े....एक जगह धारावाहिक में पद्मिनी का मामा गोरासिंह इसकी स्वीकारोक्ति देता है. धारावाहिक के अंत में वी एल सी सी का ऐड धारावाहिक में पद्मिनी की सुन्दरता का राज बताता है और धारावाहिक में पद्मिनी का ब्यूटी क्वीन में रूपांतरण कर देता है।

Monday, June 8, 2009

मीडिया अध्यापन का हिन्दी मानस

'' हिन्दी मीडिया के उपर ये बात भले ही लागू होती हो कि संचार को सबसे पहले समझने और विश्लेषित करने का काम साहित्य के लोगों ने किया। इसकी बड़ी वजह ये भी है कि जिस तरह हिन्दी साहित्य के लोगों ने हिन्दी पत्रकारिता का विश्लेषण किया उसी तरह से दो कदम औऱ आगे बढ़कर संचार का भी विश्लेषण कर दिया लेकिन दूसरी भाषाओं की बात करें तो वहां न सिर्फ पत्रकारिता को साहित्य से अलग विधा के तौर पर जाना समझा गया बल्कि इसे साहित्य से बिल्कुल अलग बताया गया। यही वजह है कि वहां ये कल्चरल स्टडीज के अन्त्रगत विश्लेषित किया जाता है,न कि साहित्य के अन्तर्गत।साहित्य के अन्तर्गत संचार और मौजूदा मीडिया को विश्लेषित करने की सबसे बड़ी सीमा है कि ये ले-देकर कंटेट पर जाकर स्थिर हो जाता है जबकि मीडिया और जनसंचार के संदर्भ में कंटेंट पूरे विश्लेषण का एक बहुत ही छोटा हिस्सा है। एक जरुरी बात और कि जब भी साहित्य के अन्तर्गत इसका विश्वेषण करते हैं तो कभी भी तकनीक औऱ इसके पीछे के अर्थशास्त्र की चर्चा नहीं करते इसलिए ये विश्लेषण से ज्यदा गप्प लगने लग जाता है जो कि आगे चलकर न तो मीडियाकर्मियों के कोई काम का होता है और न ही मीडिया के प्रति बेहतर समझ ही बन पाती है। हां इतना जरुर होता है कि साहित्य पढ़ने-पढ़ानेवालों की एक पूरी की पूरी पीढ़ी इसमें खप जाती है। ''


विनीत कुमार ने अपने ब्लॉग गाहे-बगाहे पर दुरुस्त फ़रमाया है कि मीडिया का साहित्य सम्मत शास्त्रीय विवेचन करने से कहीं अधिक जरुरी है कि अपनी जमीं के पैमाने से उसका विश्लेषण हो। हम यह सोच कर आनंदित होते रहते हैं की आधुनिक हिंदी साहित्य और नवजात हिंदी पत्रकारिता जन्म एक साथ हुआ है और कई बार यह अति उत्साह में निरे साहित्य को पत्रकारिता का पर्याय मान बैठते है । प्रिंट मीडिया को तो हमने मुद्रण तकनीक के चलते उसे साहित्य की ही श्रेणी में जबरन फिट कर दिया पर संचार के इलेक्ट्रॉनिक पहलु इसकी जद से बाहर हैं ...हालाँकि एक वाजिब सवाल यह है कि क्या अख़बार को मुद्रित विधा होने की वज़ह से टीवी , रेडियो , फिल्म के संचार माध्यम के समूह से अलग किया जा सकता है क्योंकि जन्सचार के माध्यमो की खासियत ही यही है कि वह एक साथ एक वक़्त पर बड़े लक्ष्य समूह (पाठक, श्रोता , दर्शक ) को सन्देश संप्रेषित करते हैं....उस पर वेब पत्रकारिता तो प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक का कॉम्बिनेशन बनकर उभरी है,उसे कैसे भूल सकते है। भले ही इन्टरनेट उपभोक्ताओं की संख्या कम हो , पर मोबाइल उपभोक्ताओं की संख्या तो अधिक है (वर्तमान में केवल ३० फीसदी आबादी ही मोबाइल का इस्तेमाल करती है ...इसलिए अगर ५० प्रतिशत जनता के हाथों में मोबाइल आ जाता है तो भी मोबाइल की कॉल दरें 20-25 पैसे होने की पूरी संभावनाएं है ...क्योंकि दूरसंचार उद्योग में के प्लेयर की भी संख्या स्वाभाविक रूप से बढेगी, जिस पर कि चंद सर्विस प्रोवाईदेर्स की ही इजारेदारी है ). मीडिया में अब भी ऐसे शिक्षकों की कमी नहीं है जो सगर्व घोषित करते है कि वे इन्टरनेट सेवी नहीं हैं या अगर करते भी हैं तो अपने निजी कामों के सिलसिले में मसलन प्रकाशक को पुस्तक की सामग्री मेल करने, या लेख लिखने की सम्बन्ध में सामग्री खोजने के लिए....भाई जब आप टीवी देखते हैं, रेडियो सुनते हैं , अख़बार पड़ते है , इन्टरनेट बैंकिंग करते है , रेलवे टिकेट की ऑनलाइन बुकिंग करते है ,लेटेस्ट फैशन का मोबाइल रखते हैं ... इन्टरनेट को बतौर वेब मीडियम संचार साधन के तौर पर स्वीकारने में क्या हर्ज़ है...जबकि आलम यह है कि अगर इन्टरनेट पर किसी जगह कंपनी का ज़िक्र नहीं है तो उसकी भौगोलिक उपस्थिति बेमानी-सी लगती है ...लक्षदीप का स्टुडेंट दिल्ली विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर जाकर उसकी की पूरी मालूमात इन्टरनेट के जरिये हासिल कर रहा है। हिंदी के अध्येता मीडिया पढाएं, उसमें उतनी उतनी समस्या नहीं है ...जितनी की वो मीडिया के प्रतिक्षण बदलते स्वरुप, चरित्र, आयामों के बदलावों को नोटिस नहीं करते क्योंकि उससे कंटेंट और उसकी प्रस्तुति कंटेंट को भी बदलती है , उसके तकनीक, प्रोडक्शन कोस्ट , इनपुट , तयशुदा रिजल्ट से जुड़े प्रोग्राम स्ट्रक्चर पर बात होनी चाहिए , पर इसके बजाय औचित्य, प्रभाव, नैतिकता, मिशन /प्रोफेशन पर ही बहस केन्द्रित हो जाती है। आज की चिंता है संपादक की सत्ता ख़त्म हो गयी है... प्रबंधक ही मालिक और सर्वेसर्वा है, पर क्या घाटे का मीडिया चला कर , मिशनरी पत्रकारिता की आस लगाकर क्या पत्रकारिता को भौतिक सच्चाइयों के बरक्स वरेण्य क्षेत्र बनाया जा रहा है . मीडिया कर्म को एक आजीविका के तौर पर देखे जाने के पेशेवर नज़रिए की सख्त जरुरत है , जिसका असर मीडिया के छात्रों के अध्ययन में व्यवहारिक प्रशिक्षण के कार्यकुशल, दक्ष श्रम से जुडी है। मीडिया का इतिहास पड़ते हुए पत्रकारिता की विभूतियों यथा गणेशशंकर विद्यार्थी, पराड़कर, जगदीश चन्द्र माथुर, भारतेंदु, महात्मा गाँधी, महावीर द्विवेदी से लेकर आगे, रघुवीर सहाय तक आते है जिन्होंने प्रिंट मीडिया में अपना योगदान दिया पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को पालने पोसने वाले लोगों की कहीं बात नहीं होती कमलेश्वर, मन्नू भंडारी, मनोहरश्याम जोशी, राही मासूम राजा के सिने अवदान पर बात नहीं की जाती, उनकी पटकथाओं का जिक्र नहीं होता...फिल्म पढ़ते हैं तो फिम स्क्रीनिंग कि कोई व्यवस्था ही नहीं होती...जब भारतीय निर्देशकों कि फिल्मों को ही संस्थओंओं में प्रर्दशित नहीं किया जाता तो विदेशी फिल्मकारों की सिने कला को कैसे समझा पाएंगे।फिल्म पढ़ते हैं तो फ़िल्म स्क्रीनिंग की कोई व्यवस्था ही नहीं होती...जब भारतीय निर्देशकों कि फिल्मों को संस्थानों में प्रदर्शित नहीं किया जाता तो विदेशी फिल्मकारों की सिने कला को कैसे समझा पाएंगे....फिर डॉक्युमेंटरी तो पहले से ही उपेक्षित विधा है. भूमंडली कृत मीडिया बाज़ार में टाइम, वार्नर, टी सी आई, न्यूज़ कोर्प, डिज़नी कि स्याह स्केच ज्यादा मिलते हैं बजाय कि उनके मीडिया प्रबंधन और प्रकार्यों पर बात होती तो बेहतर होता।हिंदी आलोचना सिद्धांतों से मीडिया की व्याख्या करना व्यर्थ की माथा पच्ची है।


हद तो यह है की वैकल्पिक मीडिया पढ़ते हुए ...लघु पत्रिका आन्दोलन का ही झंडा बुलंद किया जाता है जबकि सच्चाई यह है की उसमें मीडिया कंटेंट से कहीं अधिक साहित्य ही है...ब्लॉग , कम्युनिटी रेडियो को ही भुला दिया जाता है ।मूल्यहीन मीडिया सभी की आँखों की किरकिरी है, पर क्या अन्य पेशों में मूल्यों का क्षरण नहीं हुआ है ...सरकारी डॉक्टर भी गाँव में जाने से कतराते है ..अध्यापक भी पार्ट टाइम ट्यूशन करते है . इसलिए अगर विज्ञापन के बल पर 5-10 रुपये की लागत का अखबार 2-3 रुपये में आम आदमी को मयस्सर है तो इसमें बुराई क्या है। मीडिया को कठघरे में खडा किया जाता है कि उससे लोग बिगड़ते है तो क्या इसी मीडिया के प्रोडक्ट धार्मिक टीवी चैनल , रामायण , महाभारत को देखर लोग सज्जन क्यों नहीं बने। यकीं जानिए औडिएंस इतना भी बेवकूफ नहीं है , जितना हम उसे आसानी से झांसे में आने वाला मानकर उसके हकों की आवाज़ उठाने का दम भरते है ...वो एग्जिट पोल के अनुमानों को धता बताते हुए अपनी मर्ज़ी से सरकार चुनता है, न कि 'जय हो ' के विज्ञापन को देखकर वोटिंग करता है ।

Thursday, June 4, 2009

पानी रे पानी तेरा रंग कैसा !

देश की राजधानी दिल्ली में पेयजल की समस्या गहराती जा रही है है। कभी ३०-३५ फीट की गहराई पर मिलने वाले पानी का भूजल स्तर ३०० फीट तक पहुँच गया है. इस समस्या के मूल में हमारी रोज़मर्रा के कामों के लिए जरुरत से ज्यादा पानी की बर्बाद करने वाली लापरवाह आदतें तो शामिल है ही साथ ही प्रशासन की जल प्रबंधन और जलस्रोतों की रखरखाव सम्बन्धी नीतियों को भलीभांति लागू करने में बरती जा रही कोताही भी बराबर की हिस्सेदार है. पानी के उपयोग और संरक्षण के प्रति हमारा उदासीन रवैया यही रहा तो तीसरे विश्वयुद्ध की जड़ में जलाभाव का संकट होने के कयास गैर गैर गैर सच होते देर नहीं लगेगी.


जिन्दगी की इस बुनियादी जरुरत के महत्त्व को समझते हुए सफ़र (सोशल एक्शन फॉर एडवोकेसी एंड रिसर्च ) संस्था ने २३ मई २००९ को वजीराबाद गाँव स्थित कार्यालय में ' कलर्स ऑफ़ वाटर' डॉक्युमेंटरी स्क्रीनिंग का आयोजन किया। वृत्तचित्रकार विजेंद्र द्वारा बनायीं गयी इस फिल्म में राजधानी के अलग-अलग इलाकों में पानी को लेकर निवासियों को होने वाली दिक्कतों को फिल्माया गया है.साथ ही जायजा लिया गया है पानी से सम्बंधित कानूनी प्रावधानों का. निजी बिल्डरों द्वारा कॉलोनियों को बनाने में समर जेट पम्प लगाने की हरकत हो या सार्वजानिक नल पर और पानी के टैंकरों पर टूटी भीड़ में सर-फुटौव्वल का रोजाना मंजर हो या फिर जल बोर्ड की टूटी हुयी पाइप लाइनों और टैंकर के बहते हुए नल हो, डॉक्युमेंटरी में न केवल समस्या के पहलुओं को दिखाया गया बल्कि जनता से ही पानी को बचाने की कोशिश की पहल करने की इच्छा को भी सामने रखा गया है.


इसी मुद्दे से जुडी एक और लघु फिल्म 'कम पानी जादू ज्यादा ' में एक लीटर पानी से पूरी कार की सफाई के उपाय को दिखाया गया। इसी तरह का एक और प्रयास शेविंग क्रीम की जगह अलोवीरा की पत्तियों के इस्तेमाल से पानी की खपत को कम करने में नजर आया.


जल सरंक्षण पर केन्द्रित इन दो लघु फिल्मों के अलावा 'पूर्वधारणा' नामक वृतचित्र में चार लघु कथाओं को पिरोया गया। राजा द्वारा बनायीं गयी इस फिल्म में तमाम तरह के पूर्वाग्रहों को प्रस्तुत किया गया है. अंग्रेजी न जानने वालों के प्रति संकीर्ण रवैय्या हो या घर पर स्त्री को देखते हुए हमेशा यह कहना की ' क्या कोई आदमी (पुरुष) नहीं है ' का अक्सर किया जाने वाला लिंग-भेदी सवाल के वर्तमान समाज में मौजूद है. पुलिस की रॉब गांठने वाली आम छवि के विपरीत दुर्घटना स्थल सकारात्मक तस्वीर को पेश करती कहानी हो या फिर देश के मुसलमानों के प्रति गैर-मुस्लिम नागरिक की शंकालु दृष्टि को बयां करती हुई पेशकश काबिल-ऐ-तारीफ थी.

Sunday, April 12, 2009

सफर का सांस्कृतिक कार्यक्रम 'अभिव्यक्ति २००९' , ११ -१४ अप्रैल २००९


बाबा साहेब जयंती के अवसर पर सफर (सोशल एक्शन फॉर एडवोकेसी एंड रिसर्च ) वार्षिक सांस्कतिक 'अभिव्यक्ति २००९' आयोजित कर रहा है। आप सभी सदर आमंत्रित हैं। अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें।

राकेश कुमार सिंह , मो० 9811972872

Monday, March 30, 2009

शिवखोरी - जम्मू का एक कन्दरा तीर्थ


जम्मू वैष्णो देवी की यात्रा तो तकरीबन दस साल पहले भी की थी पर इस बार शिवखोरी जाना नया अनुभव रहा है...कटरा से ८० किमी की दूरी पर रन्सू इलाके का यह तीर्थ लगभग पांच साल पहले तक सवेंदनशील क्षेत्र माना जाता था क्योंकि यह राजौरी-पुँछ सेक्टर से सटा हुआ है...उस समय पर्यटकों को पहचान पत्र रखने की जरुरत रहती थी...क्या पता कब पुलिस चेकिंग होने लगे।


२-६ मार्च समय और बेहतरीन मौसम का साथ सोने पर सुहागा साबित हुआ क्योंकि यह आमतौर पर स्कूलों में परीक्षा का समय होता है जिसकी वज़ह से यात्रियों की संख्या गर्मियों की अपेक्षा आधी ही रह जाती है . ग्रीष्मावकाश के समय रोजाना लगभग १ लाख यात्री वैष्णो देवी के दर्शन करते है...साथ ही सर्दी-गर्मी के मिले-जुले माहौल में पहाडों पर पदयात्रा करने का अपना ही लुत्फ़ है.



२ की रात को पौने नौ बजे नयी दिल्ली-उधमपुर जाने वाली उत्तर जनसंपर्क क्रांति से हमारा १२ सदस्यीय दल सुबह ६ बजे जम्मू तवी रेलवे स्टेशन पर उतरा ..वहां से जम्मू और कश्मीर राज्य परिवहन की बस पकड़ कर कर कटरा पहुंचे. सत्य होटल में ६०० रुपये की दर से दो रात के लिए कमरे लिए...एक महिलाओं के लिए और एक पुरुषों के लिए. कमरे में सामान रखकर नित्यकर्म के बाद करीब ११ बजे वैष्णो देवी भवन के लिए चढाई शुरू की...चूँकि हमारे ग्रुप में एक ७१ वर्षीय बुजुर्ग महिला भी थी , इसीलिए भवन पहुँचने में औसत ३-४ घंटे से अधिक समय लग गया...अनुरोध करने के बावजूद उन्होंने घोडे-खच्चर-पालकी पर सवारी करना स्वीकार नहीं किया...उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए ४:३० बजे गुफा में पिंडियों के दर्शन किये. सुबह से सिर्फ चाय का ही पी थी ..५ बजे भोजन करने के उपरांत वाया भैरों मंदिर होते हुए आदिकुमारी की गुफा में ९ बजे करीब बजे कतार में लगे. इसी बीच में सिने तरीका सुष्मिता सेन के अपनी पुत्री के साथ वीआइपी दौरे के चलते ४५ मिनट और अपनी बारी का इंतजार करना पड़ा ...हमारे सफ़र के गाइड (गाइड इसलिए की वो पिछले १५ वर्षों से लगातार दर्शनार्थ वहां जाते रहे हैं ) महेंद्र भैया ने चुटकी ली ...लो तुम्हे एक और देवी के दर्शन करा दिए...मेरे भाई ने उससे हाथ मिलाया था...मैंने मजाक में कहा अब हाथ मत धोना...अंतत साढ़े ग्यारह बजे तक हमारे समूह ने दर्शन कर लिया था..तत्पश्चात अपने रूम पर १ बजे करीब पहुंचे ..रास्ते में ही रात का खाना खा लिया था. 2 बजे तक सब बिस्तर पर निढाल हो चुके थे.


रात को १ घंटे बाद ही मेरी नीद उचट गयी थी...और में बिस्तर पर बैठ गयी....कमरे की खिड़की के चारो परदे पूरी तरह मिल नहीं पाए थे...इसलिए उनके बीच शीशे से पार सामने आदि कुमारी की की तरफ वाला पहाड़ की ओर देखकर वक़्त बिताने की कोशिश करने लगी...औरों की नींद ख़राब न हो इसका भी बराबर ख्याल रखना चाहा ...समय का अंदाजा लगाने के लिए चिडियों की चहचाहट की ओर कान लगे थे....क्योंकि अमूमन ५ बजे के बाद उनका प्रात कलरव की स्वरलहरियां गूंजती है। ऐसे वक़्त में उर्दू का एक शेर 'तुम आये हो न शबे इन्तेज़ार गुजरी है, तलाश में है सहर बार-बार गुजरी है ' बरबस याद आ गया. बीच में मम्मी ने करवट बदलते हुए मुझे देखा...मैंने पूछा क्या में नहाने चली जाऊं...फिर सबसे पहले मैंने ही स्नान किया...तब तक ६ बज चुके थे....महेंद्र भैया ने रात को सबको अगले दिन जल्दी उठ कर रेडी रहने की हिदायत दी थी क्योंकि शिवखोरी के लिए निकलना था...फिर ७ बजे तक भैया तैयार होकर एक १२ सीटर बस बुक करने के लिए चले गए....९:३० बजे गाडी होटल के आगे खड़ी थी.


५ घंटे के सफ़र के बाद पाकिस्तान की ओर बह रही चेनाब नदी पार करते हुए हम शिवखोरी की चढाई के लिए बस से उतरे ....होटल वाले को खाने का मेनू बताकर चले गए थे क्योंकि खाना वहां २ घंटे पहले आर्डर करना पड़ता है। १:३० बजे होटल से २० २५ कदम की दुरी से श्राइन बोर्ड द्वारा निर्मित ४.५ किमी के यात्री मार्ग से ऊपर गुफा में पहुंचे.३ बजे तक दर्शन करके वापस होटल पहुँच चुके थे....घाटी से सटी हुए इस इलाके में गेहूं की फसल लहलहा रही थी....खैर के कांट-छाँट किये हुए काले पेड़ आकाश की ओर सर उठाए थे...लाल फूलों से लदे सेमल के वृक्ष हरे भू दृश्य में सुन्दर कंट्रास्ट पैदा कर रहे थे....५ बजे वहां से वापस कटरा के लिए रवाना हुए.



फिर रास्ते में रियासी इलाके में एक पार्क था....उसमें शिवखोरी के एक और मंदिर और छोटे से ताल में मछलियाँ थी....हरे-नीले पानी में मछलियाँ भी मयूर रंगों में चमक रही थी....उसी पार्क के पीछे की तरफ एक पहाड़ था जिसकी चोटी पर एक किला दिखाई दे रहा था...कहते हैं कि वो किला जम्मू के किसी राजा का था.



बस में डोगरी गन्ने चल रहे थे जिसकी शब्दावली में पंजाबी शब्दों के वर्चस्व था...तो लय वही जानी पहचानी पर्वतीय गीतों की थी। बस चालक ने बताया हिन्दू लोग डोगरी को हिंदी में और मुस्लिम लोग उर्दू में लिखते हैं ....बोलने में तो एक ही है। वापसी में नव दुर्गा की गुफा के दर्शन किये। रात को ८ बजे होटल पहुंचे । फ्रेश होकर डिनर के लिए मनोरंजन रेस्तरां में गए। थोडा-बहुत खरीदारी की, पर प्रसाद की सामग्री जम्मू तवी से लेने की योजना थी।

अगले दिन १२ बजे कटरा को अलविदा कर रेलवे स्टेशन गए। रेलवे परिसर के क्लोक रूम में सामान जमा किया । ट्रेन ८:३० की थी इसलिए स्टेशन से आरटीवी नुमा छोटी बस से ५ रुपये प्रति व्यक्ति की दर से रघुनाथ मंदिर गए। भारत का सबसे बड़ा शिवलिंग के अलावा एक पारदर्शी शिवलिंग भी इसकी विशेषता है। दोपहर के भोजन के बाद वहां की प्रसिद्ध चोकलेट बर्फी जो काफी कुछ स्वाद में बाल मिठाई से मिलती जुलती है, लेकर खील अखरोट (अखरोट तो वैष्णो देवी के प्रसाद की पहचान बन चुकाहै) इत्यादि प्रसाद की सामग्री ली।फिर वापस ७ बजे रेलवे स्टेशन पहुंचे। अपना सामान वापस लेने के बाद ४५ मिनट तक प्लेटफोर्म के फर्श बैठ कर ही बिताये । हमारा प्लेटफोर्म नोम्बर ९ था पर वहां काफी भीड़ थी, इसलिए हम ८ पर चले गए और १५-२० मिनट पहले वापस अपने प्लेटफोर्म पर आकर दिल्ली की राह पकड़ी.


Sunday, March 29, 2009

छोटे -छोटे शहरों से....हम तो झोला उठा के चले

कुछ दिन पहले 'मुझे चाँद चाहिए' सुरेन्द्र वर्मा का नायिका प्रधान प्रख्यात हिंदी उपन्यास पड़ते हुए दो हिंदी फिल्में 'फैशन' और 'मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूँ' अनायास याद आ गयी....एक मीडिया कर्मी के लिए तो फिल्में टेक्स्ट होती हैं...पर एक साहित्य के अध्येता के लिए भी फिल्में कितने कारगर तरीके से जीनियोलोगी बनाती चलती है, को जानना दिलचस्प होता है....नायिका वर्षा वशिष्ठ भी 'मेघना माथुर' और 'मोहिनी' उर्फ़ चुटकी की तरह करियर के लिए महत्वकांशी तो है, पर छोटे शहर की लड़कियों का मुंबई को कर्मक्षेत्र बनाने तक का सफ़र में ग्लैमर - सिनेमा और फैशन के प्रति उसका दृष्टिकोण स्ट्रेटेजिक डिसीजन्स के चलते अलग होता है.

बचपन की सिलबिल से 'यशोदा' के ओल्ड फैशन नाम से छुटकारा पाकर 'वर्षा वशिष्ट' का चुनाव करती है। वशिष्ठ उपनाम चुनने के पीछे का तर्क के ब्राहमण जाति की ऊँची प्रतिष्ठा से जुडा हुआ है. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रवेश पाने के लिए घरवालों की मुखालफत करती हुई वर्षा की अगली मंजिल सिनेमा है...जहाँ गाहे-बगाहे वह रंगमंच के सौन्दर्यबोध और लाइव परफोर्मेंस बनाम चलताऊ और कमाऊ के साथ रिटेक की तुलना करती है, पर उसकी समझदारी की दाद देनी पड़ती है कि न तो वह व्यावसायिक फिल्मो से परहेज करती है और न ही यथार्थवादी सिनेमा को नकारती है और साथ ही रंगमंच में भी सक्रिय रहती है. दोनों के बीच शानदार संतुलन कायम करते हुए वह 'शबाना ' और ' नसीर ' की याद दिलाती है. गौरतलब है की तेजस्विनी कोलाह्पुरी (पद्मिनी कोल्हापुरी की छोटी बहन )अभिनीत इस उपन्यास पर रजा बुंदेला ने सीरियल भी बनाया गया था.


उसका गजरौला की मोहिनी की आदर्श माधुरी की भांति कोई आइकन नहीं है और न ही वह चंडीगढ़ की मेघना माथुर की भांति सफलता के लिए समझौतापरस्त है। रंगमंच की बारीकियों और उसके प्रकार्य की आधारभूमि एक अनुशासन से तो परिचित कराती है ही, उसके साथ पोपुलर मीडियम सिनेमा की अपनी शर्तों और फोर्मुलों के साथ 'इमेज' की सीमाओं को भी जगजाहिर करती है. इसी क्रम में मार्शल मक्लुहन के 'रियर व्यू मिरोर ' फेमोमेनन की भी पुष्टि करती है जिसके तहत तकनीकी विकास के क्रम में हर विधा अपनी पूर्ववर्ती विधा की तुलना में कमतर आंकी जाती है, पर एक सच यह भी है की दृश्य कला पर आधारित विधाओं के लिए रंगमंचीय बोध फंडामेंटल की तरह काम करता है. यूँ ही नहीं भारतीय फिल्म और टेलिविज़न संस्थान , पुणे के पाट्यक्रम में रंगमंच को जोड़ा गया है. आज राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सिनेमा में पदार्पण कर चुके रंगकर्मियों की लम्बी फेहरिस्त गिनाई जा सकती है.


इससे पहले शोबा डे के अंग्रेजी उपन्यास स्टारी नाइट्स का हिंदी रूपांतर 'सितारों की रातें ' भी पड़ा. आशारानी (देविका रानी की प्रॉक्सी) के तौर पर दक्षिण भारतीय अभिनेत्रियों का हिंदी सिनेमा में काम करने के चलन पर रौशनी डाली है. निर्देशकों से लेकर काम दिलवाने वाले एजेंटों की कार्य प्रणाली को करीने से पेश करती हुई इस कृति में में अभिनेत्रियों के प्रति 'शो पीस ' की भांति काम लिए जाने के भी ब्यौरे दर्ज हैं. दक्षिण भारतीय फिल्मों के काम करने के तरीकों और स्टूडियो कल्चर को भी काफी हद तक संबोधित करने की कोशिश कि गयी है.

Tuesday, March 17, 2009

टीवी की बेटियाँ - मुनाफे की रणनीति का नया फार्मूला

सबकी लाडली बेबो (स्टार प्लस) , मेरे घर आई एक नन्ही परी (कलर्स), दोनों ही धारावाहिक ऐसे परिवारों को दिखाते हैं जिनमे कई पीदियों से कोई लड़की पैदा नहीं हुई। आमतौर पर यह देखा गया है की एक बेटी होने के बाद दूसरी बेटी की चाहत नहीं होती....पर बेटों की चाहत बरक़रार रहती है....बेटा पाने की आस में कन्या भ्रूण की हत्या तो होती ही है, फॅमिली प्लानिंग के साइड इफेक्टस भी लड़कियों के हिस्से में ही आये। जिन्दा रही तो घर-बाहर दोनों ही मोर्चों पर गैर-बराबरी का सलूक आम है। चीन में जनसंख्या वृद्धि दर सिफर करने के लिए बनाये गए नियमों के चलते एक संतान के रूप में भी माता पिता बेटे की ख्वाहिश पाले हुए हैं.....हालाँकि बेटे के प्रति प्यार का मतलब हमेशा ही कन्या के प्रति बेरुखी का रूप नहीं होता. ऐसे भी कई परिवार है जो दोनों ही लिंगो की संताने चाहते हैं...पर आज का मौजूं यह है कि क्या कन्या के जन्म को प्रोत्साहन देने के सरकारी गैर सरकारी , सामाजिक सांस्कृतिक मंच उसे केवल प्रकृति में मानव जाति के यौन अनुपात के संतुलन के लिए बढावा दे रहे है, या 'लड़किया कम होगी तो दुल्हन कहाँ से लाओगे ' मार्का जनहित में जारी विज्ञापन की भांति के बहन, बेटी, बहु , पत्नी के पारिवारिक किरदारों की जरुरत पूरी करने के तौर पर देखी जा रही है....या फिर बेटो की अधिकता से होने वाली एकरूपता में परिवार में विविधता लाने के लिए उसकी उपस्थिति होनी चाहिए .....एक मानुषी के रूप में उसकी जरुरत कब महसूस होगी? कब उसे मानवी के नाते जीने का अधिकार मिलेगा...इन सवालों के जवाब बाकी है !

'अनाड़ी, 'राजा' फिल्मों सरीखी कई भाइयों की इकलौती बहनों के ऊपर भी कई पहरे लगाये जाते है....उनके जीवन में डू/ डोंट को तय करने में भाइयों की भूमिका बड़ी मजबूत दिखाई देती है....इन सीरियलों की कहानी आगे किस करवट बैठेगी , यह तो बाद में पता चलेगा....पर धारावाहिकों में कन्या को प्रमोट करना भी विशुद कॉमर्शियल एजेंडा है ..उसी सौन्दर्य प्रसाधनों के विज्ञापन की तरह जो महिलाओं के रंग को निखारने के बाद अगला टारगेट कस्टमर पुरुषों को बना रहा है. यही सास - बहु धारावाहिकों से उकता गए दर्शकों को बांधे रखने/ टीआरपी उठाने का नया फार्मूला है.

Monday, March 2, 2009

अछूत(आ) भारत - अलगाए लोगों की दास्तां

इंडिया अनटच्ड स्टोरीज़ ऑफ़ पीपल अपार्ट वृत्तचित्र की स्क्रीनिंग का एक दौर सफ़र (सोशल एक्शन फॉर एडवोकेसी एंड रिसर्च ) गैर-सरकारी संस्था द्वारा भीमराव आंबेडकर कॉलेज , दिल्ली विश्वविद्यालय में २६ फ़रवरी २००९ को आयोजित किया गया...निर्देशक स्टालिन केo ने १०८ मिनट की इस डॉक्युमेंटरी में अस्पृश्यता और जाति व्यवस्था की समस्या को कई कोणों से सामने लाने की कोशिश की है। हिंदी, भोजपुरी, गुजराती, पंजाबी , तमिल , तेलुगु , मलयालम ज़बानों के स्थानीय रंग के साथ अंग्रेजी उप-शीर्षकों के माध्यम से दृष्टि संस्था ने प्रोडक्शन का कार्यभार संभाला है तो नवसृजन संस्था ने इसके प्रदर्शनों की श्रंखला को बखूबी निभाया है।

४ साल के अथक परिश्रम से निर्मित इस फिल्म में भारत के ८ राज्यों और चार धर्मों में जाति प्रथा की भयावह स्थिति को करीब से सेलुलोइड पर उतारा है....५००० साल से चली आ रही वर्ण व्यवस्था के शास्त्र सम्मत होने के दस्तावेजी आख्यान के बाईट्स और उससे दलितों के ऊपर लगाये हुए प्रतिबंधो के समान्तर सिक्वेंस का फ्रिक्शन जबरदस्त बन पड़ा है। शिक्षा से पैदा होने वाली जागरूकता ने भी दलितों के दर्द को कुछ कम नहीं किया है क्योंकि स्कूलों में भी सवर्ण बच्चे अग्रिम पंक्ति में बैठाये जाते हैं और दलित छात्र बेक बेन्चर्स ही बने रहते हैं...उनसे झाडू लगाने को कहा जाता है...यहाँ तक की एक स्कूल में दलित छात्रों को शौचालय साफ़ करने के लिए मजबूर किया जाता रहा है...ताकि वो अपने पुश्तैनी काम से ही बंधे रह सके। इसकी पुष्टि जेएनयू के छात्रावास में होने वाले कमरों के पार्टीशन के इकबालिया बयानों में होती है ...सफदरजंग के दलित शल्य चिकित्सक को भी महत्वपूर्ण केसों का इंचार्ज नहीं बनाया जाता ...वज़ह साफ़ है ... दलित होने के कारण उनकी योग्यता पर शक किया जाता है।


फिल्म में दिखाया गया है की किस तरह से वे सार्वजनिक वाहनों की सवारियों से वंचित है...वो अगडी जाति के गावों में साइकिल पर सवारी नहीं कर सकते, चप्पले पहनकर प्रवेश नहीं कर सकते। एक दलित मिस्त्री जो सवर्णों के मकानों को बनता है...मकान बनाने के बाद उसमें उसका प्रवेश वर्जित हो जाता है । रेल की पटरी के नीचे आकर मरने वालों की लाशों और मृत पशुओं को ठिकाने लगाने वाले लोग हों या सवर्णों स्त्रियों की प्रसूति में मदद करने वाली दलित दाइयां , इनकी भी हालत कोई बेहतर नहीं है। राजपूत जाति के लोग ताल ठोंककर कहते हैं कि नीची जाति के लोग उनके सामने ऊपर बैठने की हिमाकत नहीं कर सकते।


दलितों ने जाति प्रथा के दुष्परिणामों से बचने के लिए धर्मान्तरण का सहारा लिया , पर वहां भी उन्हें चैन नहीं मिलता...इसाई, इसलाम में भी उन्हें दोयम दर्जा दिया जाता रहा है। कैसी विडम्बना है सिख धर्म के स्थापना के समय पंज प्यारों से उनकी जाति नहीं पूछी गयी पर जाट सिख, वाल्मीकि सिख जैसे जाति विभेद बरक़रार हैं...इसलाम में भी जाति का निषेध है...मस्जिद में यह याद रखा जाता है...पर उससे बाहर आते ही लोग जाति भेद को का बर्ताव करने लग जाते हैं...यही हाल नमाज में नमाजियों की पंक्तियों का भी है...इसीलिए शेख-सैयदों की मस्जिदे भी अलग-अलग हो जाती हैं।


दलित और सवर्णों के अंतरजातीय विवाहों की बात तो दूर की कौडी है...खुद दलितों में भी जाति व्यवस्था की हाइरार्की बनी हुई है...अगडे दलित भी अपने से जाति में कमतर दलितों से सामाजिक सम्बन्ध रखने पर सहमत नही हैं.....आरक्षण के पक्ष-विपक्ष में लोगो की राय दिखाकर निर्देशक ने इस सवाल का जवाब दर्शकों पर छोड़ा है। वृत्तचित्र के एक खंड में अखबारों के वैवाहिक विज्ञापन भी जाति-प्रथा की गहराती जड़ों को दिखाते हैं...जिनमें नगरीय भारत विभाजित है। क्लाइमेक्स फ़िल्म का सबसे बेहतरीन हिस्सा है जिसमें निर्देशक ने पत्रकारों के मानिंद केवल अपनी रिपोर्ट पेश नहीं की है ...बल्कि जाति बंधन के प्रतिबन्ध को तोड़ने की एक पहल के जरिये अँधेरे में लौ दिखाई ...इसीलिए 'आपको कैसा लग रहा है ' के टीवी पत्रकारिता की सीमाओं से एक कदम आगे दलित लड़की को सवर्णों के कुएं से पानी भरकर अपना सर गर्व से ऊँचा करते हुए दिखाया है और एक दलित लड़के का सवर्णों के पेयजल को पीना आत्म-सम्मान की तृष्णा के तुष्टि भाव को चित्रित करता है।


चूँकि डॉक्युमेंटरी ऐसे ज्वलंत पर आधारित थी..जिससे किसी न किसी रूप में हर हिन्दुस्तानी का सरोकार बनता है...चाहे वह किसी भी जाति से ताल्लुक रखता हो...इसलिए चर्चा के दौरान गरमा-गर्मी तो हुई ही ....कई लोग भावुक हो कर रो भी दिए....बहरहाल वृतचित्र की खासियत यही थी की इसके कोलाज की भांति विसुअल्स एंड साउंड बाइट्स किसी के दिलो-दिमाग को उद्देलित करने के लिए काफी थे...और दूर तक मन में कई सवालों की अंतहीन कड़ियों को जोड़ते चले जाते हैं.

Sunday, February 22, 2009

परिधि से केन्द्र की ओर : 'स्माइल पिंकी'


मुंबई की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म 'स्लमडाग मिलेनियर' को बेस्ट अडाप्टेड स्क्रीनप्ले, बेस्ट साउड मिक्सिंग, बेस्ट एडिटिंग, बेस्ट सिनेमेटोग्राफी और बेस्ट म्यूजिक श्रेणी के लिए आस्कर पुरस्कार से नवाजा गया। सोने पर सुहागा यह की भारत में बनी 'स्माइल पिंकी' ने सर्वश्रेष्ठ डाक्यूमेंटरी [लघु कथानक ] का आस्कर जीता। जब मैं यह पोस्ट लिख रही हूँ टीवी चैनलों पर लॉस एंजेल्स के कोडक हॉल में ऑस्कर समारोह की कवरेज पेश की जा रही थी...बीच में ऑस्कर की तमाम श्रेणियो के अवार्डों की घोषणा रह -रह कर ब्रेकिंग न्यूज़ के रूप में चल रही थी....यदा कदा याद दिलाया जा रहा था की 'स्माइल पिंकी' की प्रविष्टि ने भी ऑस्कर भारत की झोली में डाला है...अखबारों को तो कल सुबह तक इंतज़ार करना पड़ेगा । उनकी वेबसाइट पर फ्लैश में भारत को मिले ऑस्कर की सूचनाएं रन कर रही हैं। भले ही अमिताभ ऑस्कर को भाव न देते हों ...पर यहाँ पर 'लगान' फिल्म की याद आती है...जिसमें भद्र पुरुषों के ब्रितानी खेल में हिन्दुस्तानी किसान उन्हीं के खेल नियमों पर मात देकर लगान करवा लेते हैं...इस बिन्दु को राष्ट्रवादी नज़रिए से न देखा जाए तो ऑस्कर का अन्तराष्ट्रीय अवार्ड भी पश्चिमी सिनेमा के बरक्स हिन्दुस्तानी सिनेमा के रेकोग्निशन का सवाल बन जाता है...जिसे अपने सिने मापदंड हैं।

इस बीच एक बहुत बड़ा फर्क यह देखने को मिला की 'स्लमडाग मिलेनियर' को उतना हाईलाईट नही किया जा रहा है, जितना की वेटेज 'स्माइल पिंकी' को दी जा रही है। सुर्खिया भी 'जय हो' से ही पटी हुई हैं...और 'स्माइल पिंकी' की सफलता को कही सप्लीमेंट्री रिजल्ट की तरह सुनाया जा रहा है.वज़ह साफ़ है.'स्लमडाग मिलेनियर' ने प्रचार तंत्र पर सब कुछ झोंका है...दूसरा भारत में वृत्तचित्रों का मॉस मार्केट नही हैं...किसी भी राह चलते व्यक्ति से आप फिल्मों की अच्छी -खासी जानकारी पा सकते हैं॥पर वृत्तचित्रों के बारे में पूछे जाने पर बुद्धिजीवी वर्ग के नुमाइंदे भी गर्दन घुमाने लगते है...कॉलेज स्टूडेंट्स तो हाथ खड़े कर देते हैं.

डॉक्युमेंटरी के साथ यह संकट रहा है की यह कम से कम भारत में तो एक जन विधा के तौर पर लोकप्रिय नही है...साहित्य की हालत तो फिर भी कही बेहतर है...प्रकाशक पाठक के साथ मार्केट तो किसी तरह बना हुआ है...मूलतः डॉक्युमेंटरी को पाँच तरह के मकसद के लिए बनाया जाता है...सरकारी संस्थाओं की जरूरतों जैसे स्थापना वर्षगांठ, या किसी अजीमुश्शान शख्सियत की जिंदगी पर, कारपोरेट फिल्म /विज्ञापन शूट के तौर पर, आन्दोलनधर्मिता के साक्ष्य के तौर पर और कुछ डिस्कवरी-नेशनल ज्योग्राफिक ,हिस्ट्री चैनल इत्यादि के प्रोग्राम कंटेंट के तौर पर और ज्ञान दर्शन, अतुल्य भारत के अकादमिक-सांस्कृतिक प्रोमोशनल सामग्री के तौर पर। ज्ञानपीठ ने साहित्यकारों पर वृत्तचित्रों की श्रंखला सीडी जारी की है.

आमतौर पर अन्दोलान्धर्मी डॉक्युमेंटरी प्राइवेट स्क्रीनिंग की जाती है.... और अगर चंद खुशनसीब डॉक्युमेंटरी की पब्लिक स्क्रीनिंग होती भी है तो उसे फिल्म की तुलना में नए औडिएंस नसीब नही होते हैं....उसके औडिएंस उतने ही लोग होते हैं जो डॉक्युमेंटरी फॉर्म को पहचानते हैं या फिर विषय विशेष की डॉक्युमेंटरी की खासियत से वाकिफ होते हैं।दूसरा डॉक्युमेंटरी का काम भी असंगठित कार्य-क्षेत्र है...इसलिए फ्रीलांस डॉक्युमेंटरी निर्माता उसके प्रमोशन के मीडिया कैम्पेन रन नही कर पाते...अपना ही कैमरा लेकर प्रोजेक्टर का भी ख़ुद ही इन्तेजाम करने वाले डॉक्युमेंटरी मेकर इसीलिए 'जो घर उजारो आपनो , चले हमारे साथ' या 'शौक सरे सामां बाज़ार निकला' बतर्ज़ डॉक्युमेंटरी मेकिंग मेहनत के सात-साथ रिसर्च की भूख की भी डिमांड करता है.

डॉक्युमेंटरी को कॉमर्शियल मीडियम बनना चाहिए या नही इस सवाल से ज्यादा जरुरी है की फिल्म की तरह डॉक्युमेंटरी मेकिंग को भी पाठ्यक्रमों का हिस्सा होना चाइये...उस तरह से नही जिसमें फिल्म बनने की पहली ट्रेनिंग डॉक्युमेंटरी निर्माण से ही होती है॥बल्कि उस तरह से जिसमें उस पर स्वायत्त तरीके से बहस की जा सके...उसके भूत-वर्तमान-भविष्य का ग्राफ -मानचित्र तैयार किया जा सके..कई फिल्मकार भी पहले डॉक्युमेंटरी मेकर ही होते हैं और साइड बिज़नस के तौर पर डॉक्युमेंटरी भी समांतर रूप बनाते हैं। विज्ञापन > डॉक्युमेंटरी > फिल्म को चंद सेकंड से कुछ घंटो की कैनवस पर देखें और नाट्यकर्मी > फिल्माभिनेता और प्रिंट पत्रकार > टीवी पत्रकार मीडिया के हाइरार्की के साथ व्यावसायिक पदोन्नति के भी पड़ाव बन जाते हैं.

निसंदेह 'स्माइल पिंकी' को ऑस्कर मिलना डॉक्युमेंटरी के रेगिस्तान में एक मरुद्यान की भांति है..अगर इससे डॉक्युमेंटरी विधा को केवल फ़िल्म समारोहों से बाहर भी गंभीर जन अभिरुचि पैदा होती है..तो इस लिहाज़ से ऑस्कर संजीवनी बूटी है। पोस्ट लिखे जाने तक 'स्लमडाग मिलेनियर' को आठ ऑस्कर मिल चुके थे.

Thursday, February 19, 2009

प्रोमो पर सेंसर की कैंची

ना आना इस देस लाडो का नया प्रोमो टीवी पर चल रहा है. पुराने प्रोमों पर सरकारी और गैर- सरकारी आपत्ति के चलते उसे हटाकर नए प्रोमो को लाया गया । इसमें कोई दो राय नहीं की पुराना प्रोमो ज्यादा असरदार था या कहें की झकझोर कर रख देने वाला था...पर सवाल यह उठता है की क्या गैर -सरकारी आपत्तियां उन लोगों द्वारा दर्ज की गई थी जो यह मानते हैं की कन्या भ्रूण हत्या की घटनाएं ग्रामीण रुढियों की उपज हैं या फिर उन ऊँचें तबकों से आवाजें जो यह कहते है कि आज की सोसाइटी में ऐसी असमानताएं घट रही हैं....कलर्स का फोकस देहाती पृष्ठभूमियों की रुढियों पर है...पर अगर इसी को शहरों के नर्सिंग होम में प्री-नेटल चेक अप के नाम होने वाली कन्या भ्रूण हत्या को शूट किया जाता तो भी क्या ऐतराज जाहिर नही होता...पर यहाँ पर एक चेतावनी यह साफ़ हो गई है कि आगे से टीवी सीरियल के निर्माताओं को भी फिल्मों की तरह सेंसरशिप से गुज़रना पड़ सकता है।

विज्ञापनों से भी अभी सख्ती से पेश आना प्रदर्शित भी है....शीतल पेयों और शराब बियर के विज्ञापन में जिस तरह से ऐडवेंचर फिल्माएं जातें है..मोटर साइकिल के करतब नुमा स्टाइल को जितनी स्पोर्टी स्प्रिट के साथ पेश किया जाता है...हैल्थ ड्रिंक्स से महामानव बनने के जो दावे पेश किए जाते हैं...उनकी तफ्तीश अभी तक प्रसारण मंत्रालय ने नहीं की है..और अगर कोई डिस्क्लेमर या सूचना प्रदर्शित भी होती है तो वो इतने कम समय के लिए होती है कि उसे पूरा पढ़ पाना अक्सर असम्भव होता है...तिस पर जो ५-७ साल के छोटे बच्चे विज्ञापन देखते है..क्या उनकी लिखित भाषा की नींव इतनी मज़बूत हो चुकी होती है...कि वो उस वैधानिक चेतावनी को पढ़ पाएं...आमतौर पर छोटे बच्चों के साथ बड़े लोग भी विज्ञापन को उसके टेक्स्ट के बजाय ऑडियो-विडियो से ही रिकाल करते है....इसीलिए बालिका वधु सीरियल के क्रेडिट रोल से पहले दिखाए जाने वाले राष्ट्रीय सर्वे के नतीजों को कोई इतनी तीव्रता से ग्रहण नही कर सकता जितना कि कार्यक्रम के अंत में लिखित और वाचित पंक्तियों पर सहज रूप से ध्यान जाता है।


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Govt wants foeticide show promo taken off air
The Women and Child Development Ministry on Tuesday asked TV channel Colors to withdraw the promo of its new serial Na Aana Iss Des Lado. The promo shows a group of men drowning a new born girl in a vessel and a man shouting “next year, give me a son”.
The ministry termed the promo derogatory towards the girl child, and stated that it tends to support the belief that the sacrifice of a newborn girl may result in the birth of a boy.


Stating that the intention behind the serial may be to create awareness about ‘socially relevant’ issues, joint secretary in the ministry Kiran Chadda, in her letter to the channel, said the pre-launch campaign appears to glorify the rampant practice of killing girls.



India has only 927 girls below 6 years of age for every 1,000 boys with states like Delhi, Punjab, Haryana, Rajasthan and Gujarat having a sex ratio much below the national average.

Colors said it would address the issues raised as and when it receives the notice. Lado deals with female foeticide, rampant the northern and central India.



“The promotion campaign on Colors shows a negative aspect of our society but fails to alert people against such practices,” a ministry official, who was not willing to be quoted, said.

The letter, a copy of which has been sent to the I&B Ministry, also asks channels to be careful while portraying sensitive issues like foeticide. It is the result of protests by several women and child organisations. “Everytime the promo is shown on TV, I have to change the channel... It is devastating,” said Jalal P. Jha, a blogger on wordpress.com.



Chetan Chauhan, Hindustan Times,November 4, 2006

2008 की सर्वश्रेष्ठ कविता

THE BEST POEM OF 2008

This poem was nominated by UN as the best poem of 2008, Written by an African Kid.

When I born, I black

When I grow up, I black

When I go in Sun, I black

When I scared, I black

When I sick, I black

And when I die, I still black


And you white fellow

When you born, you pink

When you grow up, you white

When you go in sun, you red

When you cold, you blue

When you scared, you yellow

When you sick, you green

And when you die, you gray

And you calling me colored?

Sunday, February 15, 2009

बीके यानि माडर्न टीचिंग ऐड

जीके बनाम बीके यानी सामान्य ज्ञान के बरक्स मुबैया सिनेमा का ज्ञान ....कल तक जनरल नोलेज का मतलब एक बड़े अनुपात में राजनीति , इतिहास, विज्ञानं, गणित, भूगोल जैसे पारंपरिक अनुशासनों से लिया जाता था...फिर कंप्यूटर भी शामिल हुआ...और सांकृतिक ज्ञान के नम पर धार्मिक, पौराणिक साहित्य, कलाओं (लोक नृत्य , साहित्य, नाटक ) से ही सवाल पूछे जाते थे....पर फिल्मों से सम्बंधित सवाल अपवाद ही हुआ करते थे। पर आज के क्लास रूम टीचिंग में फिल्में शिक्षक की रुखी आलोचना-समीक्षा पद्धतियों का समझाने में टीचिंग ऐड का काम करती हैं...सम्भव है छात्र ने तमाम शास्त्रीय पुस्तकों का अध्यन न किया हो...परप्रोमो फिल्मों का ज्ञान चाहे-अनचाहे उसके सामने किसी न किसी फॉर्म में आता-जाता रहता है....अखबारों में फिल्म समीक्षा के जरिये कथानक तो पता चल हे जाता है...गीतों के लिए ऍफ़ ऍम रेडियो है ना....टीवी पर प्रोमों आते रहते है...केबल की मेहरबानी है तो नई-पुरानी फिल्मों का प्रदर्शन होता ही रहता है। तिस पर आज किसी भी नई फ़िल्म के बजट का एक बड़ा हिस्सा प्रचार-प्रसार को भी समर्पित होता है जिससे काफी हद तक बीके में वृद्धि होती है।

आज भी फ़िल्म अध्ययन को मीडिया विधा या सांस्कृतिक अध्ययन का विषय मान कर इसे अन्य अनुशासन के विद्यार्थियों के लिए गैर-जरुरी समझा जाता है....पर सच्चाई यह है की भले ही सिनेमा को कोई फंतासी दुनिया माने पर 'साहित्य रूपी दर्पण ' की भांति ही इस शीशमहल में समाज के कई अक्स नज़र आते हैं। फेमिनिस्म को समझाना हो तो मिर्च-मसाला, डोर, फायर, खून भरी मांग किसी 'लिहाफ ', कस्तूरी कुंडल बसै', 'छिन्नमस्ता ' के टेक्स्ट से कम नही है..उतर-औद्योगिक समाज का प्रतिबिम्बन चार्ली चापलिन की मूक फिल्मों में है, भारत कुमार उर्फ़ मनोज कुमार अभिनीत फिल्मों में राष्ट्रवाद्द का एक 'नया दौर' है जो 'नमस्ते लन्दन' तक चला आता है . .सारांश, अर्धसत्य, अंकुर, मंथन जैसी फिल्मों में यथार्थ परिस्थितियों की दस्तक क्या किसी 'आधे-अधूरे ' या 'परिंदे ' से कम है क्या ?...आतंकवाद, साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार' को ' वेडनेस डे ', ' बोम्बे ', गंगाजल' के उदाहरणों से भी समझा जा सकता है....'देव डी ', 'ओये लकी लकी ओये ' तो विशुद्ध उतर-आधुनिक मानव की सामयिक उपभोक्ता वादी चेतना का अंकन है। अमीरी-गरीबी की डिबेट का मार्क्सवादी आग्रह का समाजवादी लक्ष्य फिल्मों के बहु-प्रचलित फोर्मुलों का विषय नही रही है। 'तारे ज़मीं पर ', 'दोस्ती', 'जाग्रति ' बाल मनोविज्ञान की बेहतरीन पेशकश हैं।

दलित विमर्श, स्त्री विमर्श जैसे अस्मितामूलक विमर्शों से अलग मीडिया विमर्श तमाम विधाओं, विमर्शों, व्यक्तित्वों , समाजिक्ताओं का समेकित रूप है...पर आधुनिक मीडिया विमर्श को भी हमने कई चौहद्दियों में बाँध रखा है...मसलन क्षेत्रीय सिनेमा का स्वर रीमेक बनाते समय और राष्ट्रीय पुरस्कारों की घोषणा करते समय याद आती है, उर्दू जबान को तो अलग अदब, इल्मी मकाम हासिल है...और हिन्दी में उर्दू हाय-हाय के भारतेंदु के चश्मे से देखने वालों ने रामचंद्र शुक्ल और महावीर प्रसाद के मानक हिन्दी में हिन्दुस्तानी ( हिन्दी + उर्दू ) के गंगा जमुनी भाषाई विरासत को अवरुद्ध करने की कोशिश की। अगर लिपि / रस्मुलखत के अन्तर को न देखा जाए उर्दू भी हिन्दी की ही सरजमी की पैदाइश है। इसी भाषाई राजनीति के चलते 'पाकीजा ' जैसे उर्दू अल्फाजों से भरपूर फिल्म को हिदी सिनेमा के श्रेणी से राष्टीय पुरस्कारों के लिए नामांकित सूची में दर्ज किया जाता है....या तो उसे उर्दू की श्रेणी में रखा जाना चाहिए था या फिर तथाकथित हिन्दी सिनेमा को हिन्दुस्तानी सिनेमा की संज्ञा दी जानी चाहिए....और अगर हिन्दी सिखाने के कोचिंग गुरु के तौर पर फिल्मो को देखा जाए तो हैरानी होगी की बिना ककहरा जाने लोग कैसे भाषा सीखते है...और यही तो भाषा विज्ञानी ससयुर के लांग ( भाषा ) का परोल ( वाक् ) है।

Monday, February 9, 2009

जिन सी आई ई स्कूल नही वेख्या

कॉलेज में आकर बसंत से कोई खास जुडाव तो महसूस नही होता सिवाय इसके की डेल्ही यूनिवर्सिटी के पार्कों में खिलते हुए फूलों से रौनके बहार आ जाती है..किसी संत ने कहा था इन्सान हमेशा असंतुष्ट रहता है...गर्मी होती है तो कुम्हला जाता है...मौसम को कोसता है...सर्दी होती है तो अकड़ जाता है...ज्यादा सर्दी को रोता है..इस पर नसीरूदीन का जवाब होता है...बसंत से जिसे परेशानी हो वो बताये...तो बसंत का मिजाज़ मध्यमार्गी होता है. स्कूल में बसंत का मतलब होता था फ्लावर शो में भागीदारी , सहभोज की तैयारियां , खेल दिवस और वार्षिक परीक्षा की करीबी का अहसास जो डर से ज्यादा खुशी देता था क्योंकि उसके बाद भी उत्सव चलता रहता था.. एक्साम के बाद वार्षिकोत्सव की तैय्यारी जो होनी थी.


डिपार्टमेंट ऑफ़ एजूकेशन के विद्यालय सी आई ई एक्सपेरिमेंटल बेसिक स्कूल में मिडल क्लास तक शिक्षा ग्रहण की। डेल्ही यूनिवर्सिटी हर साल फूल वालों की सैर की मौके पर फ्लावर शो आयोजित करती है जिसमें स्कूलों की तरफ से क्राफ्ट्स का प्रदर्शन भी किया जाता था...हमारे टीचर्स बच्चों से चीजे बनवा कर या ख़ुद बनाकर छात्रों की नाम के प्रविष्टियाँ भेज देते थे। उसमें इनाम भी मिलता था। सहभोज स्कूल में मनाया जाने वाला वार्षिक प्रीतिभोज था जिसमें बड़ी कक्षाओं के छात्र और अध्यापक मिलकर भोजन बनते थे और बाद में सब लोग मिलकर पंगत में बैठकर उसका आनंद लिया करते थे.उसकी तैयारी भी एक दो दिन पहले से शुरू हो जाती थी.मिटटी में गहरे गड्डे चूल्हे बनने के लिए खोदे जाते थे.बच्चों से घर से चाकू- चकला बेलन मंगाया जाता था .किसी क्लास को भंडारघर में तब्दील कर देते थे तो किसी में पुरियां बेलने के लिए आटे के बोरों से लेकर पराते जमा की जाते थी. किसी कक्षा में आलू छीलने से लेकर मसाले के लिए टमाटर, प्याजों की कटाई का काम किया जाता था...आलू की सब्जी, मिक्स वेज और पुरी के बाद डेज़र्ट में हलवा बतौर प्रसाद बांटा जाता था। लोग अपने बर्तन ख़ुद ही धोते थे ...बड़े बर्तनों को रगड़ने की जिम्मेदारी से लेकर पानी भरने काम बड़े लड़कों को दिया जाता था .



स्कूल के सहभोज के बाद अगला भोज का निमंत्रण सी आई ई महाविद्यालय के ओर से आता था...बी एल एड, बी एड के छात्र-शिक्षकों द्वारा आयोजित इस लंगर का सभी को इंतज़ार रहता था...लंगर की खीर प्रीतिभोज की स्पेशल डिश होती थी। इसके कुछ दिन बाद स्पोर्ट्स डे मनाया जाता था...जिसमें पद सञ्चालन के लिए रोज़ सुबह प्राथना में जीरो पिरिओद में कदमताल का अभ्यास कराया जाता था. स्कूल में छात्रों का दलगत विभाजन होता था। इन दलों के अपने छात्र एवम शिक्षक प्रतिनिधि होते थे॥और बेस्ट दल को भी अवार्ड के तौर पर शील्ड मिलती थी। स्पोर्ट्स डे की विभिन्न प्रतियोगिताएं और सालाना परीक्षाओं के साथ-साथ विभिन्न सांकृतिक गतिविधियों के विजेताओं को वार्षिकोत्सव में पुरस्कृत किया जाता था...आमतौर पर पन्द्रह मार्च तक परीक्षाएं खत्म हो जाती थी और ३१ मार्च को वार्षिकोत्सव मनाया जाता था. इसलिए बीच के पन्द्रह दिनों में स्कूल बिना शैक्षिक उद्देश्य के सालाना जलसे में प्रस्तुत किए जाने वाले कार्यक्रमों के रियाज़ के लिए जाते थे...कुल मिलाकर बसंत के मानी का मतलब सामूहिक सृजन का उत्सव बनता है।

Monday, January 26, 2009

स्लमडॉग करोड़पति में किसका गुन जमाल गाता है

स्लमडॉग करोड़पति अभी नही देखी है, पर एजेंडा में है। सुनते हैं फ़िल्म में भारत की फटेहाल भारत की गरीबी से बिग बी खफा हैं । एक नजरिया यह भी कि विदेशी निर्देशक कि फिल्म है ...विकास करते भारत को क्यों दिखायेंगे...गोया हिन्दुस्तानियों ने भारत की बदहाली पर रौशनी डालने का पेटेंट कराया है ....अगर यह तर्क है... तो सत्यजित राय को बख्श देना चाहिए था ..पर ऐसा तो नही हुआ .स्वतंत्रता -समानता -बंधुत्व की भांति सत्य -शिव -सुंदर संयोंजन भी दुर्लभ है। फिल्म एक कॉमर्शियल मीडियम है....प्रोफिट मेकिंग उसका भी टारगेट है। कला सिनेमा भी तो यथार्थवादी था....उस को तो किसी ने आरे हाथो नही लिया। मुम्बईया प्रोडक्ट हिन्दी मूवी का सुपरिचित फार्मूला ही है...नायक की गरीबी बनाम नायिका की अमीरी...किसी -किसी फ़िल्म में इस फोर्मुले को उलट देते हैं। रीयलिस्टिक सिनेमा यांनी गंभीर चित्रपट होगा कॉमर्शियल सिनेमा यानी चलताऊ सिनेमा होगा, इस चौहद्दी से बाहर आने की जरुरुत है। सच हमेशा न तो घिनौना होता है, न ही सुनहरा होता है, वह तो सापेक्ष होता है....कोई फ़िल्म किसी को अच्छी लगती है या नही लगती, यह निजी मत है, बॉक्स ऑफिस कलेक्शन भी एक ही तथ्य है....कभी आउट ऑफ़ बॉक्स स्टोरी वाली फिल्म भी पिट जाती है, सिंह इज किंग भी हिट हो जाती है...जिसके पहले अक्षय कुमार का कहना होता है...की उनकी फिल्मों को देखने के लिए दिमाग घर पर रख कर जाएँ..यह भी सम्भव है की 'A Wednesday ' अपने जबरदस्त क्लाइमेक्स के बावजूद किसी दर्शक को मुक्कमल लगी हो। अगर फिल्मे हमेशा अद्भुत भारत की ही प्रायोजित सरकारी छवि को दिखाएंगी तो फिल्मों का अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य तो बेमानी होगा ।