फिल्म और साहित्य दोनों विधाओं की सैद्धांतिकी अलग-अलग होते हुए भी कई बातों में दोनों कतिपय समानताएँ भी मिलती है। जैसे एक अच्छी रचना का गुण उसकी भाषा में चित्रात्मकता और रवानगी होती है। जासूसी उपन्यास भी अपने सस्पेंस और रोचकता के लिए जाने जाते हैं। कमलेश्वर , मनोहर श्याम जोशी , अमृतलालनागर, प्रेमचंद, मोहन राकेश और फनीश्वरनाथ रेणु जैस तमाम साहित्यकारों ने दोनों विधाओं में काम किया है। उनके साहित्य में फिल्म की सी कसावट साफ नजर आती है। पढ़ते हुए शब्द चित्र बनकर उभरने लगते हैं। इसी तरह एक फिल्म में भी स्टोरीलाइन की साफगोई के साथ कसी हुई पटकथा किसी दर्शक को उसी तरह बाँधे रख सकती है, जिस तरह किसी पाठक को एक अच्छी रचना । फनीश्वरनाथ रेणु का कहना है कि हर अच्छी साहित्यिक कृति अपने आप में फिल्म होती है- फिल्म की सभी संभावनाएं लिए हुए हैं।१
हालांकि पाठक/दर्शकों की निजी पसंद-नापसंद, विषयगत रूचियाँ भी अपना महत्व रखती हैं, पर फिल्म जहाँ लोकतंत्र की बुनियाद पर आम दर्शक के लिए होने का दावा करती है वहीं साहित्यिक रचनाओं पर लेखक का स्वांत सुखाय लेखन ज्यादा हावी होता है। साहित्यिक रचनाकारों के सामने बाजार के दबाव फिल्म की अपेक्षा कम होते हैं। एक लेखक को रचना लिखने के बाद प्रकाशक मिल जाते हैं और नहीं मिलने की स्थिति में वह खुद भी उसे प्रकाशित कर सकता है क्योंकि उसकी पूंजी फिल्म के तुलना में बेहद कम होती है। वहीं आज की तारीख में किसी फिल्म का बजट एक करोड़ से नीचे का नहीं होता। ये दीगर बात है कि हाल-फिलहाल मधुर भंडारकर, नागेश कूकनूर, ओनिर जैसे डायरेक्टरों ने छोटे बजट की सफल फिल्में पेश है। विख्यात नायक नायिकाओं की प्राइज ही लाखों करोड़ो में है। फिल्म का पूरा क्रू भी किसी laav lashkar से कम नहीं होता। फिल्म यूनिट के विभिन्न विशेषज्ञों कैमरामैन, डायरेक्टर, मेकअप-मैन, कॉस्ट्यूम डिजाइनर, स्क्रिप्ट राइटर, गीतकार, संगीत निर्देशक से लेकर स्पॉट बॉय, फिर निर्माता, वितरक, फाइनेंसर आदि कई लोगों के काम की हिस्सेदारी होती है। उनका अपना पारिश्रामिक है। फिल्म का बजट उसकी उत्कृष्टता और समय पर पूरा होने पर असर डालता है, बावजूद इसके कि छोटे बजट की फिल्में अच्छा बिजनेस कर जाती है और विशाल बजट और नामी-गिरामी बैनरों की फिल्में भी बॉक्स ऑफिस पर टें बोल जाती हैं। एक समय वह भी था तब जब पत्रकारों की तरह अखबार निकालने की कवायदों की तरह फिल्मकार भी फिल्मों के घाटे में जाने से दीवालिया हो जाते थे। अमिताभ जैसे फिल्मों के महानायक की कंपनी एबीसीएल कॉर्प शाहरुख़ खान की प्रोडक्शन कंपनी ड्रीम्स अनलिमिडेट या फिर शो मैंन सुभाष घई की मुक्ता आर्ट्स, ये भी बाजार का पूर्वानुमान नहीं लगा सकी हैं। ये अलग बात है कि अब केवल फिल्मों के टिकट बेचकर कमाई नहीं की जाती। उसके म्यूजिक सेंगमेंट को बेचना, फिल्म में विज्ञापन और प्रायोजकों ने अन्य आय के जरिए विकसित किए हैं।
जहाँ तक मूल कृति के प्रति निष्ठां का सवाल है वह उसके केन्द्रीय भाव के संरक्षण से जुड़ा है। पर कभी-कभी यह एक किस्म की ज्यादती-सी लगती है क्योंकि जब किसी कृति के कई पाठ तैयार हो सकते हैं, हजारों टीकाएँ- भाश्य, आलोचनाएँ लिखी जाती है, कविताओं का पुनर्पाठ होता है, तो फिल्म के जरिए उसका एक नये रचनात्मक अर्थ के सृजन की संभावनाओं को क्यों कुंद करें ? एक ओर जहां सत्यजीत राय सद्गति शीर्षक प्रेमचंद की प्रसिद्व कहानी पर टेलीफिल्म बनाते हुए प्राय: कोई तब्दीली नहीं करते हैं- इस हद तक कि कहानी वृतचित्र या डॉक्यूमेंट्री जान पड़ती है।२ वही ray प्रेमचंद की अन्य कृति पर shatranj के खिलाड़ी को एक नए मौलिक अंदाज में प्रस्तुत करते है, तो उनकी बतौर फिल्मकार स्वायत्तता मूल कृति को ज्यादा अर्थगम्य बनाती है। इस पर गौर करना जरूरी है कि इस रूपांतर से कहानी अर्थ समृद्व बनती है या फिल्म या दोनों और इन तिहरी संभावनाओं से इनकार नहीं किया सकता।
कहानी के फिल्म में रूपांतरण का अनुभव बताने के लिए सत्यजीत राय shatranj के खिलाड़ी प्रेमचंद का उदाहरण देते हैं। इसे अपने लिए चुनौती मानते हुए वे कहते हैं-" मध्य उन्नीसवीं सदी में घटित् इस समस्या से भिड़ना और कदाचित समसामयिकद दृश्टि से देखना और समसामयिक पहलू से परखना बड़ा दिलचस्प है। पुस्तक से उतारकर महज उसे सेल्युलाइड पर रच देना भर नहीं है। वह मेरे उस व्यक्तित्व से छनकर हुई पुनर्रचना हैं। जो मध्य बीसवीं सदी का व्यक्तित्व है।"३
विमल राय की देवदास संजय लीला भंसाली की देवदास से कई अपने समय अंतर की वजह से भिन्नता लिए होगी और ओथेलो को भारतीय परिवेश में समझाने के लिए उत्तर पश्चिमी भारत की सरजमीं की आँचलिकता में ढलना होगा। इसलिए दर्शकों की सामाजिक सांस्कृतिक जीवन shaili सूक्ष्म अध्ययन फिल्म रूपांतरण को प्रभावित करता है और दर्शक के बदलते युगबोध और क्षेत्रीयता के मापदंडो के अनुरूप फिल्मांकन के उपादान बदल जाते हैं। इस तरह कृति के अन्यथाकरण या कृति के मूल के अर्थ और मर्म हानि नहीं पहुँचनी चाहिए। पर माध्यम की अपनी खासियत और स्वाधीन नियमों का अपना महत्व है, इसलिए कथा से फिल्म बनाते समय फिल्मकार को अपनी युक्ति के प्रयोग की स्वायत्तता मिलनी चाहिए।
गंभीर साहित्य और लुगदी साहित्य की तरह ही कला फिल्में और व्यावसायिक फिल्मों की अपनी विधाएँ हैं, पर किसी भी सस्ते और चलताउ कृति की तुलना में एक बेहतरीन फिल्म को दोयम दर्जे का मानना, यह कहाँ की तार्किकता और समझदारी है। क्या दो बीघा जमीन, गोदान के ग्राम्य मार्मिकता से कहीं कमतर है। वर्तमान सदी में सिनेमा भी एक साहित्य है और साहित्य भी सिनेमा की शक्ल अख्तियार करता जा रहा है और यह किसी के मानने न मानने से नहीं रूकने वाला है । sharatchandra की कहानियों को बांग्ला साहित्य के दायरे से निकालकर एक बड़े पैमाने पर पूरे हिन्दुस्तान की सांझी विरासत बनाना केवल फिल्मों के जरिए ही संभव हुआ है। इसलिए फिल्म रूपांतरण दो विधाओं का संगम है, संलाप है और परस्पर एक दूसरे के सम्पूरक भी और आपसी संवाद-साहचर्य भी है।
संदर्भ सूची
१ कहानी में फिल्म और फिल्म में कहानी, अन्विता श्रीवास्तव, वर्तमान साहित्य, सदी का सिनेमा विशेषांक , शिल्पायन प्रकाशन, अगस्त-सितंबर २००२, prishat संख्या ३४९
२ कहानी में फिल्म और फिल्म में कहानी, अन्विता श्रीवास्तव, वर्तमान साहित्य, सदी का सिनेमा विशेषांक , शिल्पायन प्रकाशन, अगस्त-सितंबर २००२, पृ ठ संख्या ३४९
३. कहानी में फिल्म और फिल्म में कहानी, अन्विता श्रीवास्तव, वर्तमान साहित्य, सदी का सिनेमा विशेषांक , शिल्पायन प्रकाशन, अगस्त-सितंबर २००२, पृ ठ संख्या ३५०