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स्लमडॉग करोड़पति अभी नही देखी
है, पर एजेंडा
में है। सुनते हैं फ़िल्म में भारत की फटेहाल भारत की
गरीबी से बिग
बी खफा हैं । एक नजरिया यह भी कि विदेशी
निर्देशक कि फिल्म है ...विकास करते भारत को क्यों दिखायेंगे...गोया
हिन्दुस्तानियों ने भारत की बदहाली पर रौशनी डालने का पेटेंट कराया है ....अगर यह तर्क है... तो सत्यजित राय को बख्श देना चाहिए था ..पर ऐसा तो नही हुआ .स्वतंत्रता -समानता -बंधुत्व की भांति सत्य -शिव -सुंदर संयोंजन भी दुर्लभ है। फिल्म एक कॉमर्शियल मीडियम है....प्रोफिट मेकिंग उसका भी टारगेट है। कला
सिनेमा भी तो यथार्थवादी था....उस को तो किसी ने आरे हाथो नही लिया। मुम्बईया प्रोडक्ट हिन्दी मूवी
का सुपरिचित फार्मूला ही है...नायक की गरीबी बनाम नायिका की अमीरी...किसी -किसी फ़िल्म में इस फोर्मुले को उलट देते
हैं। रीयलिस्टिक सिनेमा यांनी गंभीर चित्रपट होगा कॉमर्शियल सिनेमा यानी चलताऊ सिनेमा
होगा, इस चौहद्दी से बाहर आने की जरुरुत है। सच हमेशा न तो घिनौना होता है, न ही सुनहरा होता है, वह तो सापेक्ष होता है....कोई फ़िल्म किसी को अच्छी लगती है या नही
लगती, यह निजी मत है, बॉक्स ऑफिस कलेक्शन भी एक ही तथ्य है....कभी आउट ऑफ़ बॉक्स स्टोरी वाली फिल्म भी पिट जाती है, सिंह इज किंग भी हिट हो जाती है...जिसके पहले अक्षय कुमार का कहना होता है...की उनकी फिल्मों को देखने के लिए दिमाग घर पर रख कर
जाएँ..यह भी सम्भव है की 'A Wednesday ' अपने जबरदस्त क्लाइमेक्स के बावजूद किसी दर्शक को मुक्कमल
न लगी हो। अगर
फिल्मे हमेशा अद्भुत भारत
की ही
प्रायोजित सरकारी छवि को
दिखाएंगी तो फिल्मों का
अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य तो
बेमानी होगा ।