Sunday, March 29, 2009

छोटे -छोटे शहरों से....हम तो झोला उठा के चले

कुछ दिन पहले 'मुझे चाँद चाहिए' सुरेन्द्र वर्मा का नायिका प्रधान प्रख्यात हिंदी उपन्यास पड़ते हुए दो हिंदी फिल्में 'फैशन' और 'मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूँ' अनायास याद आ गयी....एक मीडिया कर्मी के लिए तो फिल्में टेक्स्ट होती हैं...पर एक साहित्य के अध्येता के लिए भी फिल्में कितने कारगर तरीके से जीनियोलोगी बनाती चलती है, को जानना दिलचस्प होता है....नायिका वर्षा वशिष्ठ भी 'मेघना माथुर' और 'मोहिनी' उर्फ़ चुटकी की तरह करियर के लिए महत्वकांशी तो है, पर छोटे शहर की लड़कियों का मुंबई को कर्मक्षेत्र बनाने तक का सफ़र में ग्लैमर - सिनेमा और फैशन के प्रति उसका दृष्टिकोण स्ट्रेटेजिक डिसीजन्स के चलते अलग होता है.

बचपन की सिलबिल से 'यशोदा' के ओल्ड फैशन नाम से छुटकारा पाकर 'वर्षा वशिष्ट' का चुनाव करती है। वशिष्ठ उपनाम चुनने के पीछे का तर्क के ब्राहमण जाति की ऊँची प्रतिष्ठा से जुडा हुआ है. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रवेश पाने के लिए घरवालों की मुखालफत करती हुई वर्षा की अगली मंजिल सिनेमा है...जहाँ गाहे-बगाहे वह रंगमंच के सौन्दर्यबोध और लाइव परफोर्मेंस बनाम चलताऊ और कमाऊ के साथ रिटेक की तुलना करती है, पर उसकी समझदारी की दाद देनी पड़ती है कि न तो वह व्यावसायिक फिल्मो से परहेज करती है और न ही यथार्थवादी सिनेमा को नकारती है और साथ ही रंगमंच में भी सक्रिय रहती है. दोनों के बीच शानदार संतुलन कायम करते हुए वह 'शबाना ' और ' नसीर ' की याद दिलाती है. गौरतलब है की तेजस्विनी कोलाह्पुरी (पद्मिनी कोल्हापुरी की छोटी बहन )अभिनीत इस उपन्यास पर रजा बुंदेला ने सीरियल भी बनाया गया था.


उसका गजरौला की मोहिनी की आदर्श माधुरी की भांति कोई आइकन नहीं है और न ही वह चंडीगढ़ की मेघना माथुर की भांति सफलता के लिए समझौतापरस्त है। रंगमंच की बारीकियों और उसके प्रकार्य की आधारभूमि एक अनुशासन से तो परिचित कराती है ही, उसके साथ पोपुलर मीडियम सिनेमा की अपनी शर्तों और फोर्मुलों के साथ 'इमेज' की सीमाओं को भी जगजाहिर करती है. इसी क्रम में मार्शल मक्लुहन के 'रियर व्यू मिरोर ' फेमोमेनन की भी पुष्टि करती है जिसके तहत तकनीकी विकास के क्रम में हर विधा अपनी पूर्ववर्ती विधा की तुलना में कमतर आंकी जाती है, पर एक सच यह भी है की दृश्य कला पर आधारित विधाओं के लिए रंगमंचीय बोध फंडामेंटल की तरह काम करता है. यूँ ही नहीं भारतीय फिल्म और टेलिविज़न संस्थान , पुणे के पाट्यक्रम में रंगमंच को जोड़ा गया है. आज राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सिनेमा में पदार्पण कर चुके रंगकर्मियों की लम्बी फेहरिस्त गिनाई जा सकती है.


इससे पहले शोबा डे के अंग्रेजी उपन्यास स्टारी नाइट्स का हिंदी रूपांतर 'सितारों की रातें ' भी पड़ा. आशारानी (देविका रानी की प्रॉक्सी) के तौर पर दक्षिण भारतीय अभिनेत्रियों का हिंदी सिनेमा में काम करने के चलन पर रौशनी डाली है. निर्देशकों से लेकर काम दिलवाने वाले एजेंटों की कार्य प्रणाली को करीने से पेश करती हुई इस कृति में में अभिनेत्रियों के प्रति 'शो पीस ' की भांति काम लिए जाने के भी ब्यौरे दर्ज हैं. दक्षिण भारतीय फिल्मों के काम करने के तरीकों और स्टूडियो कल्चर को भी काफी हद तक संबोधित करने की कोशिश कि गयी है.

1 comment:

डॉ .अनुराग said...

वर्षो पहले पढ़ा ये उपन्यास आज भी उल्लेखनीय है जो ये बताता है परिस्तिथिया कभी नहीं बदलती