४ साल के अथक परिश्रम से निर्मित इस फिल्म में भारत के ८ राज्यों और चार धर्मों में जाति प्रथा की भयावह स्थिति को करीब से सेलुलोइड पर उतारा है....५००० साल से चली आ रही वर्ण व्यवस्था के शास्त्र सम्मत होने के दस्तावेजी आख्यान के बाईट्स और उससे दलितों के ऊपर लगाये हुए प्रतिबंधो के समान्तर सिक्वेंस का फ्रिक्शन जबरदस्त बन पड़ा है। शिक्षा से पैदा होने वाली जागरूकता ने भी दलितों के दर्द को कुछ कम नहीं किया है क्योंकि स्कूलों में भी सवर्ण बच्चे अग्रिम पंक्ति में बैठाये जाते हैं और दलित छात्र बेक बेन्चर्स ही बने रहते हैं...उनसे झाडू लगाने को कहा जाता है...यहाँ तक की एक स्कूल में दलित छात्रों को शौचालय साफ़ करने के लिए मजबूर किया जाता रहा है...ताकि वो अपने पुश्तैनी काम से ही बंधे रह सके। इसकी पुष्टि जेएनयू के छात्रावास में होने वाले कमरों के पार्टीशन के इकबालिया बयानों में होती है ...सफदरजंग के दलित शल्य चिकित्सक को भी महत्वपूर्ण केसों का इंचार्ज नहीं बनाया जाता ...वज़ह साफ़ है ... दलित होने के कारण उनकी योग्यता पर शक किया जाता है।
फिल्म में दिखाया गया है की किस तरह से वे सार्वजनिक वाहनों की सवारियों से वंचित है...वो अगडी जाति के गावों में साइकिल पर सवारी नहीं कर सकते, चप्पले पहनकर प्रवेश नहीं कर सकते। एक दलित मिस्त्री जो सवर्णों के मकानों को बनता है...मकान बनाने के बाद उसमें उसका प्रवेश वर्जित हो जाता है । रेल की पटरी के नीचे आकर मरने वालों की लाशों और मृत पशुओं को ठिकाने लगाने वाले लोग हों या सवर्णों स्त्रियों की प्रसूति में मदद करने वाली दलित दाइयां , इनकी भी हालत कोई बेहतर नहीं है। राजपूत जाति के लोग ताल ठोंककर कहते हैं कि नीची जाति के लोग उनके सामने ऊपर बैठने की हिमाकत नहीं कर सकते।
दलितों ने जाति प्रथा के दुष्परिणामों से बचने के लिए धर्मान्तरण का सहारा लिया , पर वहां भी उन्हें चैन नहीं मिलता...इसाई, इसलाम में भी उन्हें दोयम दर्जा दिया जाता रहा है। कैसी विडम्बना है सिख धर्म के स्थापना के समय पंज प्यारों से उनकी जाति नहीं पूछी गयी पर जाट सिख, वाल्मीकि सिख जैसे जाति विभेद बरक़रार हैं...इसलाम में भी जाति का निषेध है...मस्जिद में यह याद रखा जाता है...पर उससे बाहर आते ही लोग जाति भेद को का बर्ताव करने लग जाते हैं...यही हाल नमाज में नमाजियों की पंक्तियों का भी है...इसीलिए शेख-सैयदों की मस्जिदे भी अलग-अलग हो जाती हैं।
दलित और सवर्णों के अंतरजातीय विवाहों की बात तो दूर की कौडी है...खुद दलितों में भी जाति व्यवस्था की हाइरार्की बनी हुई है...अगडे दलित भी अपने से जाति में कमतर दलितों से सामाजिक सम्बन्ध रखने पर सहमत नही हैं.....आरक्षण के पक्ष-विपक्ष में लोगो की राय दिखाकर निर्देशक ने इस सवाल का जवाब दर्शकों पर छोड़ा है। वृत्तचित्र के एक खंड में अखबारों के वैवाहिक विज्ञापन भी जाति-प्रथा की गहराती जड़ों को दिखाते हैं...जिनमें नगरीय भारत विभाजित है। क्लाइमेक्स फ़िल्म का सबसे बेहतरीन हिस्सा है जिसमें निर्देशक ने पत्रकारों के मानिंद केवल अपनी रिपोर्ट पेश नहीं की है ...बल्कि जाति बंधन के प्रतिबन्ध को तोड़ने की एक पहल के जरिये अँधेरे में लौ दिखाई ...इसीलिए 'आपको कैसा लग रहा है ' के टीवी पत्रकारिता की सीमाओं से एक कदम आगे दलित लड़की को सवर्णों के कुएं से पानी भरकर अपना सर गर्व से ऊँचा करते हुए दिखाया है और एक दलित लड़के का सवर्णों के पेयजल को पीना आत्म-सम्मान की तृष्णा के तुष्टि भाव को चित्रित करता है।
चूँकि डॉक्युमेंटरी ऐसे ज्वलंत पर आधारित थी..जिससे किसी न किसी रूप में हर हिन्दुस्तानी का सरोकार बनता है...चाहे वह किसी भी जाति से ताल्लुक रखता हो...इसलिए चर्चा के दौरान गरमा-गर्मी तो हुई ही ....कई लोग भावुक हो कर रो भी दिए....बहरहाल वृतचित्र की खासियत यही थी की इसके कोलाज की भांति विसुअल्स एंड साउंड बाइट्स किसी के दिलो-दिमाग को उद्देलित करने के लिए काफी थे...और दूर तक मन में कई सवालों की अंतहीन कड़ियों को जोड़ते चले जाते हैं.
2 comments:
फिल्म पर जो चर्चा हुई और जिस प्रकार की चर्चा हुई, उसे भी लिखते और बढिया रहता. जान पाते कि लोग क्या सोचते हैं इस मसले पर और कैसे रिएक्ट करते हैं.
बहरहाल, इस सूचनाप्रद पोस्ट के लिए बधाई! आपसे आगे भी ऐसी जानकारियों की अपेक्षा रहेगी.
apki samvednao bhari jankakariya hame bahut kuch sochne ko mazbur karti hai.isi tarah likhe rahiye
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