सबकी लाडली बेबो (स्टार प्लस) , मेरे घर आई एक नन्ही परी (कलर्स), दोनों ही धारावाहिक ऐसे परिवारों को दिखाते हैं जिनमे कई पीदियों से कोई लड़की पैदा नहीं हुई। आमतौर पर यह देखा गया है की एक बेटी होने के बाद दूसरी बेटी की चाहत नहीं होती....पर बेटों की चाहत बरक़रार रहती है....बेटा पाने की आस में कन्या भ्रूण की हत्या तो होती ही है, फॅमिली प्लानिंग के साइड इफेक्टस भी लड़कियों के हिस्से में ही आये। जिन्दा रही तो घर-बाहर दोनों ही मोर्चों पर गैर-बराबरी का सलूक आम है। चीन में जनसंख्या वृद्धि दर सिफर करने के लिए बनाये गए नियमों के चलते एक संतान के रूप में भी माता पिता बेटे की ख्वाहिश पाले हुए हैं.....हालाँकि बेटे के प्रति प्यार का मतलब हमेशा ही कन्या के प्रति बेरुखी का रूप नहीं होता. ऐसे भी कई परिवार है जो दोनों ही लिंगो की संताने चाहते हैं...पर आज का मौजूं यह है कि क्या कन्या के जन्म को प्रोत्साहन देने के सरकारी गैर सरकारी , सामाजिक सांस्कृतिक मंच उसे केवल प्रकृति में मानव जाति के यौन अनुपात के संतुलन के लिए बढावा दे रहे है, या 'लड़किया कम होगी तो दुल्हन कहाँ से लाओगे ' मार्का जनहित में जारी विज्ञापन की भांति के बहन, बेटी, बहु , पत्नी के पारिवारिक किरदारों की जरुरत पूरी करने के तौर पर देखी जा रही है....या फिर बेटो की अधिकता से होने वाली एकरूपता में परिवार में विविधता लाने के लिए उसकी उपस्थिति होनी चाहिए .....एक मानुषी के रूप में उसकी जरुरत कब महसूस होगी? कब उसे मानवी के नाते जीने का अधिकार मिलेगा...इन सवालों के जवाब बाकी है !
'अनाड़ी, 'राजा' फिल्मों सरीखी कई भाइयों की इकलौती बहनों के ऊपर भी कई पहरे लगाये जाते है....उनके जीवन में डू/ डोंट को तय करने में भाइयों की भूमिका बड़ी मजबूत दिखाई देती है....इन सीरियलों की कहानी आगे किस करवट बैठेगी , यह तो बाद में पता चलेगा....पर धारावाहिकों में कन्या को प्रमोट करना भी विशुद कॉमर्शियल एजेंडा है ..उसी सौन्दर्य प्रसाधनों के विज्ञापन की तरह जो महिलाओं के रंग को निखारने के बाद अगला टारगेट कस्टमर पुरुषों को बना रहा है. यही सास - बहु धारावाहिकों से उकता गए दर्शकों को बांधे रखने/ टीआरपी उठाने का नया फार्मूला है.
1 comment:
इस बात से कतई इन्कार नहीं किया जा सकता कि करोड़ों रुपये की लागतवाले चैनल हमारे सामने कोई संतई करने नहीं आए हैं। लेकिन टीआरपी के नजरिए से देखना है तो फिर दूरदर्शन को सामाजिक विकास का माध्यम मानने का मोह छो़ड़ना होगा।
दिक्कत की बात है,जो कि मुझे लगता है,जब भी हम टेलीविजन की बात करते हैं,टीआरपी और बाजार को लेकर उलझ जाते हैं,उलझना एक हद तक जरुरी भी है। लेकिन इस पर भी बात होनी चाहिए कि ऑडिएंस इसे किस रुप में ले रही है और संभवतः इसके जबाब एकहरेपन से अलग होंगे
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