Wednesday, October 8, 2008

मानिला अर्थात् मन को मोहने वाली

मानिला उत्तराखण्ड (भूतपूर्व उत्तरांचल) के अल्मोड़ा जिले का एक पर्वतीय स्थल है। जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क से ३-४ घंटे के बस के सफर से यहाँ pahuncha जाता है। रामनगर जिमकार्बेट नेशनल पार्क की तराई में ही बसा shahar है जहाँ तक रेल जाती है। चाहे तो सीधा दिल्ली-मानिला की रोडवेज बस लेकर सीधा तकरीबन १२ घंटे के सफर से पहुँचे या फिर दिल्ली-रामनगर की गाड़ी पकड़कर वहाँ से उत्तराखण्ड की स्टेट बस सर्विस से पहुँचेए दोनों ही ऑप्शन है। दिल्ली-मानिला की केवल एक बस होने की वजह से यह विकल्प कम ही अपनाने योग्य रहता है।

खै़र हम यानी मैं और मेरे मामा की सुपुत्री हेमा शाम को चार बजे घर से रवाना हो गए ताकि ६ बजे वाली सीधी बस ले सके। गढ़मुक्तेश्वर, हापुड़, मुरादाबाद गजरौला काशीपुर रामनगर तक के बड़े स्टॉप हैं। बस रात्रि के भोजन के लिए गजरौला के मेला होटल में रूकती है। उसके बार काशीपुर की ओर रवाना होती है। काशीपुर में बस डीजल भरवाने और बस की तकनीकी जांच के लिए रूकती हैं। काशीपुर से लगभग दो घंटे के सफर के बाद हम रामनगर पहँचे। रामनगर उत्तराखण्ड का वह हिस्सा है जिसे भाबर के नाम से जाना जाता है (भूगोल के अध्येता बेहतर जानते होंगे )। काफी उपजाऊ इस इलाके में आधुनिक कृषि पद्धतियों से काम लिया जाता है। बैलों के लिए यहाँ सालाना हाट लगते हैं जिसमें दूरदराज के पहाड़ी इलाकों से लोग मीलों पैदल चल कर अपने पशुओं के व्यापार के लिए आते हैं।

bas ने तकरीबन आधे घंटे का ब्रेक लिया और फिर वह पहाड़ों के बीच दाखिल होना शुरू कर देती है। सितम्बर के आखिरी हफ्ते की इस यात्रा के दौराना चुनावी सरगर्मियाँ भी जोरों पर थी। उम्मीदवारों ने दिल्ली में बसे पहाड़ी प्रवासियों के लिए गाड़ियाँ आरक्षित कर रखी थीं । २० सितंबर २००८ शाम को निकले हुए हम सुबह ६ बजे मानिला के बस स्टॉप रथखाल पर पहुँचे। रथखाल मेरे ननिहाल और ददिहाल का उभयनिष्ठ बाजार है। वहाँ २ घंटे पैदल मार्च करते हुए हम लोग मामा के गाँव सीमा पहँचे।


पंचायती राज के चुनावों के लिए तीन पदो कें लिए मतदान होने थे- बीडीसी मेंबर, ग्राम प्रधान और उपप्रधान । इन चुनावों में एक बात यह देखने को मिली की स्थानीय निर्दलीय उम्मीदवारों के अलावा बीजेपी और कांग्रेस के टिकट पर खड़े हुए उम्मीदवारों को भी अपने स्वनिर्मित चुनाव चिन्ह क्रमश: कलम दवात और उगता हुआ सूरज पर चुनाव में खड़े थे। चूंकि मामा भी चुनाव में खड़े थे इसलिए उनके घर पर पार्टी के कार्यकर्ताओं का आना जाना लगा हुआ था और घर की दीवारें गाँव के सेन्ट्रल लोकेशन में होने की वजह से सार्वजनिक इश्तहार पट चुकी थी । रात को वहीँ आराम किया । दूसरे दिन मम्मी के चाचा-चाची के घर निकासण पहँचें। उनका गाँव से अलग अकेला घर है । उसी sham को वापिस सीमा आ गए।


दूसरे दिन चुनाव था। दिल्ली में चुनाव के प्रति जितनी उदासीनता होती है, उतनी ही वहाँ उत्सुकता और मेले-सा माहौल रहता है। औरतें पूरी तरह बन-ठन कर परंपरागत आभुषरों पहनकर अपना वोट डालने जाती है। हेमा को अपना वोट डालना था । पोलिंग बूथ रथखाल के रास्ते में पड़ने वाले स्कूल जगतुखाल में था। हमारी योजना हेमा के वोट डालने के बाद मेरे गाँव तोलबुधानी जाने की थी। । ११ बजे हम पोलिंग बूथ के लिए रवाना हुए। सुबह हमने पार्टी के कार्यकताओं के लिए नाश्ता बनाकर भिजवाया था जिसे वो लंच में खा रहे थे । स्कूल मुख्य पगडंडी से ऊपर है। इसलिए स्कूल के ओर जाने वाली पगडंडी के रास्ते में उम्मीदवारों ने अपने स्टॉल लगा रखे थे और वो स्टॉल एक दरी बिछाकर मतदाता सूची में मिलाने करने के बहाने वोटरों का ब्रेनवॉश करने के लिए था। कोई कोई तो वैसे ही पहाड़ की घसियाली जमीन पर बैठे हुए थे। हेमा अपना वोट डालने के लिए गई और मैं पोलिगं बूथ से २५-३० कदम नीचे ढलान पर उसका इंतजार कर रही थी। बीच में लंच ब्रेक की वजह से हमें रूकना पड़ा । २ हमें वहीं बज गए थे।


वोट डालने के बाद हम रथखाल गए । वहाँ सर्विस रोड पर दिल्ली के वोटरों के कन्वेंस जो प्रत्याशियों द्वारा प्रायोजित थे, कतार में खड़े थे। जोरों की भूख भी लग रही थी। पापा ने दिल्ली से दादी को फोन कर दिया था कि हम आज अपने घर आएंगें। सोचा अगर रथखाल में किसी दुकान पर पेट पूजा करने के लिए ठहरे तो दादी के पास पहँचते रात हो जाएगी। एक बिस्किट पैकेट लिया और रास्ते में खाते-खाते रथखाल से प्र्रस्थान किया। रास्ते में बारिश भी शुरू हो गई, पर हम चलते गए। बारिश मूसलाधार न होकर केवल फुहार थी, इसलिए ज्यादा खीझ नहीं हुई। मौसम तो बरसात की असर की वजह से खुशगवार था ही, गर्मियों में पेड़ो से कटाई से नंगे दिखने वाले पहाड़ भी घास और स्थानीय वनस्पतियों की बरसाती पैदावार से हरे-भरे हो गए थें। आलम यह था कि गावों और खेतों के बीच के रास्ते भी टूट रहे थे और पगडंडियाँ भी घास उगने की वजह से खोने - सी लगी थी। इस बरसाती घास को काटकर पुआल बना लिए जाते हैं और उनका जानवरों के लिए बफर स्टॉक रख लेते हैं।

४ बजे दादी के घर पहँचे। वहाँ एक किलोमीटर नीचे राधार गाँव है..... और उससे आधा किमी नीचे बुआंडी को माध्यमिक विद्यालय ... मेरे गाँव पोलिंग बूथ वह स्कूल था। खैर हम ५ बजे वहाँ भी पहँुच गए। बस का इस्तेमाल तो बस दिल्ली से रथखाल आने-जाने में किया। बाकी रास्ते तो पैरों से ही नापने पड़े। ददिहाल भी रथखाल से पाँच मील की उतराई पर है। ददिहाल-रथखाल-ननिहाल एक पहाड़ का समबाहु त्रिभुज बनाते हैं, जिसके शीर्ष पर रथखाल है। इस त्रिभुज की कल्पना करने पर चढाई़-उतराई के समीकरणों का अंदाजा हो जाएगा ।

दूसरी सुबह हम मानिला मंदिर के लिए रवाना हुए । मेरी मानिला डानी तेरी बलाई ल्यूला, तु भगवती छै भवानी तेरी बलाई ल्यूला (मेरी मानिला के ऊँचाई पर बसे घने जंगल मै तुम्हारी बलाएँ लेता हूँ ) जैसा गीत हो देवभूमि के इस प्रदेश में प्रकृति-तीर्थ के द्वय को बखूबी समझा देता है। मानिला देवदार, फर, स्प्रूस (चीड़ की बात नहीं करूँगी...वह पहाड़ यूकेलिप्टस है) के शंकुल वृक्षों से ढका प्रदेश है। यहाँ भगवती के दो मंदिर हैं- तल्ला (नीचाई) मानिला और मल्ला ( ऊँचाई) मानिला। जनश्रुति है कि पहले केवल तल्ला मानिला का ही मंदिर था। गढ़वाल से कुछ चोर मंदिर में देवी की मूर्ति को चुराने के लिए आए। उनसे पूरी मूर्ति उठाई नहीं गई । वो मूर्ति का केवल एक हाथ काटकर ले जाने लगे। कहते हैं उस वक्त देवी ने चिल्लाई भी थी। उसकी चीख को लोगों ने भी सुना था। रास्ते देवी का कटा हुआ हाथ ले जाते समय इतना भारी हो गया कि उन चोरों ने विश्राम करने के लिए उसे जमीन पर रख दिया। उसके बाद वह हाथ वहीं जम गया । कालांतर में वहाँ पर मल्ला मानिला का मंदिर बनाया गया। तल्ला मानिला के मंदिर में देवी की सप्तभुजा वाली प्रतिमा है और मल्ला मानिला के मंदिर में हाथ की प्रस्तर प्रतिकृति।

मानिला में सरकारी डाक बंगले और गेस्टहाउस भी हैं। विदेशी पर्यटकों की भी आवाजाही रहती है। मल्ला मानिला के परिसर में एक संस्कृत विद्यालय और दूरदर्शन का रिले सेंटर है। रथखाल से आगे तल्ला मानिला का मंदिर का बस स्टॉप है और वहीं एक रास्ता मानिला इंटर कालेज और महाविद्यालय की ओर जाता है। पयर्टन मानचित्र पर मानिला की उपस्थिति दर्ज हो चुकी है। राज्य सरकार ने पर्यटन विकास की योजनाओं को लागू करने के लिए अनुदान भी आवंटित किया है। कई गावों में बिजली नहीं पहुँची है और जहाँ पहुँची है वहाँ मीटर उपभोक्ताओं की संख्या कम है। सौभाग्य से ननिहाल और ददिहाल में बिजली है। दोनों मंदिरों के दर्शन करने के बाद वापिस मामा के घर आए।

gale दिन हमें दिल्ली वापिस आना था, पर चुनाव के कई चरण बाकी होने की वजह से रोडवेज की बसें कम हो गई थी और स्टेट सर्विस बसें चुनाव ड्यूटी बजा रही थी। मामा ने दिल्ली -मानिला में सीटे बुक करने के लिए फोन किया...पता चला बस आई नहीं है। फिर हम दूसरे रास्ते से आए। इस रास्ते के साथ-साथ नदी भी चलती है और दिल्ली-गनाई वाली बस सेवा से नदी की अविरल धाराओं के का लुत्फ़ उठाकर अपने ठिकाने वापिस आ गए।

7 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

जानकारी पूर्ण आलेख है।आभार।

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

parvatiy anchal ka bahut suhana safar karaya aapney. bahut achcha likha hai.

http://www.ashokvichar.blogspot.com

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

bhavnaji,
parvatiya anchal ka safar karatey hua aapney kai tasveerein kheench di hain. achcha likha hai aapney.

http://www.ashokvichar.blogspot.com

Ram Dwivedi said...

सुमित्रानंदन पंत की क‍विताओं से पहाड़ों को जाना था। फिर खूब भटका इनकी वादियों में। आपने जीवंत चित्र खीचा है। बधाई

Rakesh Kumar Singh said...

बहुत ख़ूब. अगला कैंप वहीं ऑर्गेनाइज़ करने के बारे में सोचिए न.

poonam bisht negi said...

wakai bahut acha likha hai, mujhe to yaad bhi satane lagi pahadon ki, badhaayeee.

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

अच्छी विवरण