Monday, October 6, 2008

चुनावी बहस - लोकतंत्र की खास पहचान

राजदीप सरदेसाई
प्रमुख संपादक , सीएनएन-आईबीएन
Friday, October 03, 2008 09:19 [IST]


अमेरिका में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बराक ओबामा और जॉन मैक्केन के मध्य हाल ही में बहस का पहला दौर निपटा है। उपराष्ट्रपति पद की रिपब्लिकन उम्मीदवार साराह पालेन अपने डेमोकेट्र प्रतिद्वंद्वी जोए बिडेन का सामना करने के लिए खुद को तैयार कर रही हैं।


ऐसी बहस अमेरिकी लोकतंत्र की खास पहचान है, जो उम्मीदवारों को एक-दूसरे के व्यक्तित्व और नीतिगत मसलों को लेकर आमने-सामने चुनौती देने और मुकाबला करने का अवसर प्रदान करती है।


यह बहस चुनावी मुहिम का अहम मुकाम होती है, जहां ग्लेडिएटर जैसा टेलीविजन एरीना देश को उम्मीदवारों को तौलने का मौका देता है। तो यदि अमेरिका ऐसा कर सकता है तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र यानी हमारे देश में ऐसी ही बहस क्यों नहीं हो सकती, वह भी विशेषकर चौबीसों घंटे चलने वाले खबरिया चैनलों के इस दौर में, जो स्टूडियो में बहस के जरिए फलते-फूलते हैं?


वर्ष 2004 के आम चुनाव से कुछ महीने पहले मैंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी और विपक्ष की नेता सोनिया गांधी को पत्र लिखकर 'बिग फाइट' के लिए आमंत्रित किया था। हमारा प्रयास इसे सबसे जोरदार बहस बनाने का था, हमारी इलेक्शन प्रोग्रामिंग का ग्रांड फिनाले, लेकिन दोनों नेताओं ने इसमें अपनी असमर्थता जता दी और हमें कपिल सिब्बल और अरुण जेटली को बुलाना पड़ा। हालांकि दोनों के बीच अच्छी बहस हुई और उन्होंने अपनी-अपनी बात दमदार तरीके से रखी, लेकिन फिर भी जैसा हम चाह रहे थे, वैसा नहीं हो पाया।


संभवत: हमने कुछ ज्यादा ही उम्मीदें पाल ली थीं। वाजपेयी टेलीविजन के दौर से पहले के राजनेता हैं, भले ही वे अपने जबर्दस्त उद्बोधनों या भाषणों के जरिए संसद या रामलीला मैदान में तालियां बटोर लें, लेकिन बात के बीच-बीच में उनकी लंबी खामोशी टेलीविजन के हिसाब से सूट नहीं करती। जहां तक श्रीमती गांधी का सवाल है तो उन्हें राजनीति में आए दस साल से ज्यादा वक्त हो चुका है लेकिन उन्होंने अब तक बमुश्किल तीन-चार ही साक्षात्कार दिए होंगे, इनमें से ज्यादातर सावधानीपूवक तैयार किए गए और ज्यादातर उनसे सीधे-सादे और रूटीन सवाल ही पूछे गए।


प्रधानमंत्री बनने की चाहत रखने वाले हमारे दूसरे नेता भी अलग नहीं हैं। मिसाल के तौर पर मायावती गंभीर परिचर्चाओं में खुद को व्यक्त करने के बजाय प्रेस कॉन्फ्रेंसों में पत्रकारों पर भड़कने को तरजीह देती हैं। लालकृष्ण आडवाणी, संभवत: अपनी पत्रकारिता की पृष्ठभूमि की वजह से हमेशा मुश्किल सवालों का जवाब देना चाहते हैं, लेकिन बहस के प्रारूप में नहीं।


प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को कैमरे पर आने में संकोच होता है। उन्हें इस पद पर रहते हुए पांच साल होने जा रहे हैं, लेकिन उन्होंने वास्तव में एक भी उपयुक्त साक्षात्कार नहीं दिया। कांग्रेस के 'युवराज' राहुल गांधी तो और भी ज्यादा संकोची हैं। अपनी शादी की योजना के संबंध में दिए गए बयान या पोटा जैसे कानून पर उनके वक्तव्य भले ही सुर्खियां बटोर लें, लेकिन वे कदाचित ही विशुद्ध राजनीतिक संवाद का विकल्प हो सकते हैं।


आडवाणी की तरह नरेंद्र मोदी भी साक्षात्कार देने में माहिर हैं, लेकिन वे भी ऐसे सवाल सुनना पसंद नहीं करते, जिनसे उन्हें परेशानी हो। टेलीविजन पर शरद पवार ऐसे बोलते हैं कि अनिद्रा की बीमारी से ग्रसित लोगों को भी नींद आ जाए, जबकि मुलायम सिंह तो कुछ शब्दों को ऐसे बोलते हैं कि उसकी तुलना बुदबुदाने वाले एच.डी. देवेगौड़ा से ही की जा सकती है। लालू यादव ही ऐसे नेता हैं कि जिनके बारे में कहा जा सकता है वे स्वाभाविक तौर पर टीवी के लिए ही बने हैं। हालांकि अब उनकी वह चुटीली और विनोदप्रिय शैली भी कुछ मंद पड़ती जा रही है, जिसने कभी उन्हें 'सितारा' हैसियत दिलाई थी।


आखिर क्यों हमारे शीर्ष स्तर के नेता टीवी पर सवाल-जवाब के विचार से ही असहज हो जाते हैं? कुछ हद तक यह हमारे सामंती और अपारदर्शी राजनीतिक तंत्र को प्रतिबिंबित करता है जो खुले मंच पर नीतिगत मसलों पर बोलना जरूरी नहीं समझता। दुर्भाग्य से अमेरिका से उलट भारतीय संदर्भ में राजनीतिक तौर पर जीतने लायक चुनावी मुहिम का टेलीविजन पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने से ज्यादा संबंध नहीं है। जहां जाति और वंश के आधार पर चुनावी हार-जीत का फैसला होता हो, वहां संप्रेषण कौशल ज्यादा मायने नहीं रखता। हमारा राजनीतिक तंत्र उस तरह के संप्रेषण कौशल की मांग नहीं करता, जिसने ओबामा को राष्ट्रपति की होड़ में सबसे आगे कर दिया।


इसके विपरीत मायावती ने पिछले साल उत्तरप्रदेश विधानसभा की अपनी चुनावी मुहिम के दौरान मीडिया और विशेषकर टेलीविजन से दूरी बनाए रखी और चुनावों में जबर्दस्त जीत हासिल की। उनके परंपरागत वोट बैंक को चुनाव में बसपा के नीले हाथी पर मोहर लगाने से पहले अपनी 'बहनजी' को टीवी पर देखने की जरूरत नहीं थी।


एक तरह से भारतीय चुनावी राजनीति ने टेलीविजन की सीमित ताकत को परिभाषित किया है। जहां कोई भावपूर्ण टीवी बहस शहरी मध्य-वर्ग के दर्शकों के एक वर्ग को उत्तेजित कर सकती है, लेकिन यह ज्यादातर मतदाताओं तक नहीं पहुंच सकती, जिनमें से कई लोग राजनीतिक तर्क-वितर्क सुनने के बजाय अपना पसंदीदा सीरियल देखेंगे।


इसके अलावा, इस बहुभाषी देश में टेलीविजन पर जबर्दस्त तरीके से मौजूदगी दर्ज कराकर राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव छोड़ना मुश्किल है। मिसाल के तौर पर क्या त्रिचि में कोई तमिलभाषी दर्शक वास्तव में लालू यादव के साथ भी खुद को जोड़ सकता है? जैसे टेलीविजन खुद स्थानीय हो गया है, इसके कंटेंट पर भी ज्यादातर स्थानीयता हावी है, इसलिए टेलीविजन के जरिए 'राष्ट्रीय' नेता के उभरने की ज्यादा गुंजाइश नहीं होती।


इसके बावजूद भले ही टेलीविजन साउंटबाइट्स आपको वोट न दिला सकें, लेकिन वे गपशप करने वाले में लोगों की राय को कुछ हद तक प्रभावित जरूर कर सकता है। मिसाल के तौर पर आतंकवाद के संबंध में ज्यादातर बहस टेलीविजन स्टूडियोज में ही हुई, जहां विपक्ष की 'पोटा वापस लाओ' की मुहिम ने संप्रग सरकार को बचाव की मुद्रा में ला दिया। बहरहाल, भविष्य पर निगाह रखने वाले राजनेताओं को टेलीविजन क्षमताओं को संवारना होगा। यह भले ही उन्हें मास लीडर न बनाए, लेकिन उन्हें ओपिनियन लीडर बनने में जरूर मददगार होगी।

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