डॉक्युमेंटरी के साथ यह संकट रहा है की यह कम से कम भारत में तो एक जन विधा के तौर पर लोकप्रिय नही है...साहित्य की हालत तो फिर भी कही बेहतर है...प्रकाशक पाठक के साथ मार्केट तो किसी तरह बना हुआ है...मूलतः डॉक्युमेंटरी को पाँच तरह के मकसद के लिए बनाया जाता है...सरकारी संस्थाओं की जरूरतों जैसे स्थापना वर्षगांठ, या किसी अजीमुश्शान शख्सियत की जिंदगी पर, कारपोरेट फिल्म /विज्ञापन शूट के तौर पर, आन्दोलनधर्मिता के साक्ष्य के तौर पर और कुछ डिस्कवरी-नेशनल ज्योग्राफिक ,हिस्ट्री चैनल इत्यादि के प्रोग्राम कंटेंट के तौर पर और ज्ञान दर्शन, अतुल्य भारत के अकादमिक-सांस्कृतिक प्रोमोशनल सामग्री के तौर पर। ज्ञानपीठ ने साहित्यकारों पर वृत्तचित्रों की श्रंखला सीडी जारी की है.
आमतौर पर अन्दोलान्धर्मी डॉक्युमेंटरी प्राइवेट स्क्रीनिंग की जाती है.... और अगर चंद खुशनसीब डॉक्युमेंटरी की पब्लिक स्क्रीनिंग होती भी है तो उसे फिल्म की तुलना में नए औडिएंस नसीब नही होते हैं....उसके औडिएंस उतने ही लोग होते हैं जो डॉक्युमेंटरी फॉर्म को पहचानते हैं या फिर विषय विशेष की डॉक्युमेंटरी की खासियत से वाकिफ होते हैं।दूसरा डॉक्युमेंटरी का काम भी असंगठित कार्य-क्षेत्र है...इसलिए फ्रीलांस डॉक्युमेंटरी निर्माता उसके प्रमोशन के मीडिया कैम्पेन रन नही कर पाते...अपना ही कैमरा लेकर प्रोजेक्टर का भी ख़ुद ही इन्तेजाम करने वाले डॉक्युमेंटरी मेकर इसीलिए 'जो घर उजारो आपनो , चले हमारे साथ' या 'शौक सरे सामां बाज़ार निकला' बतर्ज़ डॉक्युमेंटरी मेकिंग मेहनत के सात-साथ रिसर्च की भूख की भी डिमांड करता है.
डॉक्युमेंटरी को कॉमर्शियल मीडियम बनना चाहिए या नही इस सवाल से ज्यादा जरुरी है की फिल्म की तरह डॉक्युमेंटरी मेकिंग को भी पाठ्यक्रमों का हिस्सा होना चाइये...उस तरह से नही जिसमें फिल्म बनने की पहली ट्रेनिंग डॉक्युमेंटरी निर्माण से ही होती है॥बल्कि उस तरह से जिसमें उस पर स्वायत्त तरीके से बहस की जा सके...उसके भूत-वर्तमान-भविष्य का ग्राफ -मानचित्र तैयार किया जा सके..कई फिल्मकार भी पहले डॉक्युमेंटरी मेकर ही होते हैं और साइड बिज़नस के तौर पर डॉक्युमेंटरी भी समांतर रूप बनाते हैं। विज्ञापन > डॉक्युमेंटरी > फिल्म को चंद सेकंड से कुछ घंटो की कैनवस पर देखें और नाट्यकर्मी > फिल्माभिनेता और प्रिंट पत्रकार > टीवी पत्रकार मीडिया के हाइरार्की के साथ व्यावसायिक पदोन्नति के भी पड़ाव बन जाते हैं.
निसंदेह 'स्माइल पिंकी' को ऑस्कर मिलना डॉक्युमेंटरी के रेगिस्तान में एक मरुद्यान की भांति है..अगर इससे डॉक्युमेंटरी विधा को केवल फ़िल्म समारोहों से बाहर भी गंभीर जन अभिरुचि पैदा होती है..तो इस लिहाज़ से ऑस्कर संजीवनी बूटी है। पोस्ट लिखे जाने तक 'स्लमडाग मिलेनियर' को आठ ऑस्कर मिल चुके थे.