जीके बनाम बीके यानी सामान्य ज्ञान के बरक्स मुबैया सिनेमा का ज्ञान ....कल तक जनरल नोलेज का मतलब एक बड़े अनुपात में राजनीति , इतिहास, विज्ञानं, गणित, भूगोल जैसे पारंपरिक अनुशासनों से लिया जाता था...फिर कंप्यूटर भी शामिल हुआ...और सांकृतिक ज्ञान के नम पर धार्मिक, पौराणिक साहित्य, कलाओं (लोक नृत्य , साहित्य, नाटक ) से ही सवाल पूछे जाते थे....पर फिल्मों से सम्बंधित सवाल अपवाद ही हुआ करते थे। पर आज के क्लास रूम टीचिंग में फिल्में शिक्षक की रुखी आलोचना-समीक्षा पद्धतियों का समझाने में टीचिंग ऐड का काम करती हैं...सम्भव है छात्र ने तमाम शास्त्रीय पुस्तकों का अध्यन न किया हो...परप्रोमो फिल्मों का ज्ञान चाहे-अनचाहे उसके सामने किसी न किसी फॉर्म में आता-जाता रहता है....अखबारों में फिल्म समीक्षा के जरिये कथानक तो पता चल हे जाता है...गीतों के लिए ऍफ़ ऍम रेडियो है ना....टीवी पर प्रोमों आते रहते है...केबल की मेहरबानी है तो नई-पुरानी फिल्मों का प्रदर्शन होता ही रहता है। तिस पर आज किसी भी नई फ़िल्म के बजट का एक बड़ा हिस्सा प्रचार-प्रसार को भी समर्पित होता है जिससे काफी हद तक बीके में वृद्धि होती है।
आज भी फ़िल्म अध्ययन को मीडिया विधा या सांस्कृतिक अध्ययन का विषय मान कर इसे अन्य अनुशासन के विद्यार्थियों के लिए गैर-जरुरी समझा जाता है....पर सच्चाई यह है की भले ही सिनेमा को कोई फंतासी दुनिया माने पर 'साहित्य रूपी दर्पण ' की भांति ही इस शीशमहल में समाज के कई अक्स नज़र आते हैं। फेमिनिस्म को समझाना हो तो मिर्च-मसाला, डोर, फायर, खून भरी मांग किसी 'लिहाफ ', कस्तूरी कुंडल बसै', 'छिन्नमस्ता ' के टेक्स्ट से कम नही है..उतर-औद्योगिक समाज का प्रतिबिम्बन चार्ली चापलिन की मूक फिल्मों में है, भारत कुमार उर्फ़ मनोज कुमार अभिनीत फिल्मों में राष्ट्रवाद्द का एक 'नया दौर' है जो 'नमस्ते लन्दन' तक चला आता है . .सारांश, अर्धसत्य, अंकुर, मंथन जैसी फिल्मों में यथार्थ परिस्थितियों की दस्तक क्या किसी 'आधे-अधूरे ' या 'परिंदे ' से कम है क्या ?...आतंकवाद, साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार' को ' ए वेडनेस डे ', ' बोम्बे ', गंगाजल' के उदाहरणों से भी समझा जा सकता है....'देव डी ', 'ओये लकी लकी ओये ' तो विशुद्ध उतर-आधुनिक मानव की सामयिक उपभोक्ता वादी चेतना का अंकन है। अमीरी-गरीबी की डिबेट का मार्क्सवादी आग्रह का समाजवादी लक्ष्य फिल्मों के बहु-प्रचलित फोर्मुलों का विषय नही रही है। 'तारे ज़मीं पर ', 'दोस्ती', 'जाग्रति ' बाल मनोविज्ञान की बेहतरीन पेशकश हैं।
दलित विमर्श, स्त्री विमर्श जैसे अस्मितामूलक विमर्शों से अलग मीडिया विमर्श तमाम विधाओं, विमर्शों, व्यक्तित्वों , समाजिक्ताओं का समेकित रूप है...पर आधुनिक मीडिया विमर्श को भी हमने कई चौहद्दियों में बाँध रखा है...मसलन क्षेत्रीय सिनेमा का स्वर रीमेक बनाते समय और राष्ट्रीय पुरस्कारों की घोषणा करते समय याद आती है, उर्दू जबान को तो अलग अदब, इल्मी मकाम हासिल है...और हिन्दी में उर्दू हाय-हाय के भारतेंदु के चश्मे से देखने वालों ने रामचंद्र शुक्ल और महावीर प्रसाद के मानक हिन्दी में हिन्दुस्तानी ( हिन्दी + उर्दू ) के गंगा जमुनी भाषाई विरासत को अवरुद्ध करने की कोशिश की। अगर लिपि / रस्मुलखत के अन्तर को न देखा जाए उर्दू भी हिन्दी की ही सरजमी की पैदाइश है। इसी भाषाई राजनीति के चलते 'पाकीजा ' जैसे उर्दू अल्फाजों से भरपूर फिल्म को हिदी सिनेमा के श्रेणी से राष्टीय पुरस्कारों के लिए नामांकित सूची में दर्ज किया जाता है....या तो उसे उर्दू की श्रेणी में रखा जाना चाहिए था या फिर तथाकथित हिन्दी सिनेमा को हिन्दुस्तानी सिनेमा की संज्ञा दी जानी चाहिए....और अगर हिन्दी सिखाने के कोचिंग गुरु के तौर पर फिल्मो को देखा जाए तो हैरानी होगी की बिना ककहरा जाने लोग कैसे भाषा सीखते है...और यही तो भाषा विज्ञानी ससयुर के लांग ( भाषा ) का परोल ( वाक् ) है।
1 comment:
बेहतरीन समझ के साथ लिखी गयी पोस्ट। लेकिन साहित्य के लोग जिस तरह से रचनाओं को लेकर आइवरी टावर पर चढ़ जाते हैं, आने वाले समय में उन्हें एहसास होगा जिसके कि संकेत अभी से ही मिलने शुरु हो गए हैं कि उनकी पकड़ से कितनी सारी चीजें छूटती चली जा रही है। एक पर्सनल-सी अपील की पोस्ट के बीच का अंतराल कम करें, जरुरी नहीं कि रोज लिखा जाए लेकिन एक फ्रिक्वेंसी तो होनी ही चाहिए।
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