Sunday, December 28, 2008
बांग्लादेश में एक लाख हिजडों को मिला मताधिकार
Friday, December 26, 2008
क्या कह के गया था शायर वो सयाना
गालिब का जन्म आगरा में 27 दिसंबर 1869 को हुआ था। इसी के ध्यान में रखकर मिर्जा गालिब एकेडमी द्वारा हर साल 27 दिसंबर को समारोह आयोजित किए जाते हैं। कूचा बल्लीमारान में ग़ालिब की मजार है. दिवसों पर बयानबाजी करने वाले इस मुल्क में उनकी जन्मदिन की सालगिरह पर उनकी मजार पर कुछ खास कार्यक्रम आयोजित नही किए गए . यद्यपि गालिब के नाम पर न जाने कितनी सड़कों के नाम रखे गए, फिल्में, सीरियल व डाक्यूमेंट्री बनी होंगी। कितने लोगों ने उनके अदब पर शोध प्रबंध लिखे होंगे. उन्ही के अल्फाजों में कहे तो ' मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों न ग़रके दरिया न कभी जनाजा उठता, न कहीं मजार होता '.
बस एक न्यू इयर चाहिए हैप्पी होने के लिए
Thursday, December 25, 2008
कृष्ण का प्रतिबिम्ब क्राईस्ट
Tuesday, December 23, 2008
राम मिलाये जोड़ी उर्फ़ रब ने बना दी जोड़ी
Sunday, December 21, 2008
न दर्शकों की डिमांड, न मीडिया की सप्लाई
परंजय गुहा का मानना था की सेंस और सेंसेशन के बीच एक बारीक रेखा होती है जिसमें फर्क करना बेहद जरुरी होता है और यह फर्क विषय के प्रस्तुतीकरण के साथ उसकी अंतर्वस्तु से भी जुरा है। वहीं कविता का कहना था की sensation की परिभाषा सापेक्ष होती है...सेंस में जहाँ नैतिक जिम्मेदारी का अहसास होता है, सेंसेशन में उतेजित करने का उद्देश्य होता है.लित्तेत दुबे का कहना था की जिस तरह से मुंबई पर आतंकी हमले को २४ घंटे दिखाया जा रहा था...वो सिर्फ़ भय के वातावरण को निर्मित कर रहा था। दूरदर्शन के कार्यक्रमों में कम से कम जवाबदेही तो बनी रहती है ....भले उनकी गुणवत्ता कैसे भी हो . उन पर लोकसभा में बहस की जा सकती है.
विनोद दुआ ने विमर्श को गति देते हुए इंडिया टीवी के बहने भूत-प्रेत, महाप्रलय जैसी अन्धविश्वास से भरी कोवेरेजों पर सवाल उठाया तो विनोद कापरी ने बताया की एक बार स्टार न्यूज़ ने मौलाना द्वारा फतवा बेचे जाने पर ६ माह तक स्टिंग ओपरेशन किया और भरे जोश-खरोश में उसे चैनल पर एयर किया तो उसके जवाब में देश का नंबर १ चैनल 'नागिन का बदला ' चला रहा था...टीआरपी रेटिंग सामने आई तो उनके ६ महीने के मशक्कत को आशानुरूप टीआरपी नही मिली यानी दर्शको ने 'नागिन के बदले ' को हाथो हाथ लिया। टीआरपी के खेल का खुलासा यह है की देश के लगभग ५००० टीआरपी बॉक्स पुरे इंडिया के दर्शको की परतिक्रिया को बताने का दावा करते है तो पूर्वोत्तर राज्यों और बिहार में एक भी टीआरपी बॉक्स नही है.
विनोद दुआ ने कहा की हिन्दी की मनोहर कहानिया जैसी पत्रिकाओं का चंनेलिया संस्करण हमारे सामने मजूद है....इंडिया टीवी जैसे चैनलों को अपना ब्राडकास्टिंग लाइसेंस को समाचार चैनल के बजाय मनोरंजन चैनल में तब्दील करवा लेना चाहिए क्योंकि न्यूज़ के नाम पर वाहियात चीजे परोसना सरासर ग़लत है। यह लो कोस्ट मीडिया रिपोर्ट हैं . मन्दिर में बार पर सभी को आपति होती है...और बार में मन्दिर भी नही जंचता.
मीडियाकर्मियों के जेहन में एक सवाल जो हमेशा हावी रहता है...की उन्हें अपने विवेक और संचार बोध के बजे मैनेजमेंट को की प्रोफिट-मेकिंग पॉलिसी को तुष्ट करना होगा...इसलिए चाहकर भी वे कुछ नही कर सकते, के जवाब में प्रहलाद काकर ने कहा की यह पत्रकारों के अपने एथिक्स पर भी निर्भर है...अगर कों उन्हें आत्मघात करने को कहे तो वो नही करेंगे। ...इसलिए सच को प्रसारित करने की गुंजाइश हमेशा बची रहती हैं.
कितनी अजीब बात है मीडिया सेंसेशन दर्शकों के नाम गैर -जरुरी कार्यक्रमों की आपूर्ति करता है और दर्शकों से उम्मीद की जाती है की वो सेंस दिखाएं....पर क्या कभी किसी चैनल ने दर्शकों के नकारात्मक फीडबैक को प्रसारित किया है...रेडियो पर भी हमेशा श्रोताओं द्वारा चैनल के लिए बांधे तारीफों के पुल या फरमाइशी गाने ही सुनाये जाते हैं...लब्बोलुआब यह की ना तो मीडिया ख़ुद से अच्छे कार्यक्रम बनाने की शुरुआत नही करेगा जब लोग टीवी देखना बंद नही करेंगे या.. सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश जारी नही हो जाते....तब तक कोई मीडिया संगठन सेल्फ सेंसरशिप करता है तो उसकी मेहरबानी hee होगी.
Tuesday, December 16, 2008
मीडिया के बाल मजदूर
Tuesday, November 4, 2008
हम तो ऐसे हैं भइया
Anand Kashyap, the blogger of http://qualitywebcontent.wordpress.com/ express his views on current disupte of between MNS & North Indians, quoted as "Bhaiya". He asked my comment on this critical issue and I found that it become thought provoking to think on...he writes:
"As a bihari, I feel cheated and ashamed all the time whenever Mr Lalu Prasad Yadav speaks something. It is extremely traumatic situation for every bihari people and Mr Yadav is treating it like an opportunity. He reacts on the statements of JD (U) leader after approximately a week so that his statement could be taken as the fresh statement. However, there were numerous potential actions that must be taken earlier. For instance, it is not first time bihari people have been attacked in other states. The most important thing is that even in central and state his coalition government is in power. Why did not his party members resign or compel the authority to take adequate actions?
He is such a creep personality always looking forward for cheap popularity and making fool to uneducated, unemployed, socially deprived & exploited persons. It seems as if this sort of personality is building and promoting naxalism, Maoism and other terrorist groups because these personalities in spite of being in power always behaving like a helpless person and stupid, idiot and innocent people blindly believe upon them and eventually they find only one solution for all the problems that is game of blood & flesh.
Is there any end of such situation? I am adult now and never dare to go to use my voting right as I always find opportunist’s name in candidates’ list. Perhaps, I am coward. It may be true. But, the most interesting fact is that almost whole bihar is full of such coward people. They do hard work whole day to manage bread and salt in the night. Most of them do not sleep in the night because they do care about their wife, daughter and sister. Every house is so much trapped in managing basic needs that everyone has become coward. They know only one thing that is hard work. Unfortunately, even this asset is now trying to be robbed. As, we can see in Mumbai and Assam where local feels that they are inferior in front of bihari.
So, what can be concluded? Being a hard working is a sin??
Do we have today only one alternate, what has been taken by Rahul Raj?
Is this the time when all bihari youth should carry a gun or revolver because hard working and honesty has not remained guarantee of success?
I think, in this contemporary circumstance, these are simply unanswerable questions and every wise and intelligent gentleman or women will prefer to remain mute."
I replied as...
"...Yah! all is written is true,but it's not the problem of only bihar...at interational level , America afraids of stregth of indian brains... hence moulding all kind of wiser potenialities to their centre and using cheaper labour thorough outsourcing, creating a big share for its economic growth...however a large part Americans always have been opposing this and on the name of terrorism they carry discriminatory practises, be it wearing turban, be it wrapping scarf...u say biharis are hardworking by nautre, how can we say that others are not...they do hardwork becoz their everyday struggle aims to meet meals of both ends...if they don't... how can they survive. Beggers are not choosers (don't mind this phrase...it just an use)....riksha pullers are bihari, kitchen workers are pahari, porters are Kashmiri, servants are nepali and watchmen are gorakha...but bihari comes in limelight, other's don't get focussed....why bcoz they are in mionority as labour class and a bihari migrant has more visibility than others."
Wednesday, October 29, 2008
यह दीप अकेला
Thursday, October 9, 2008
मानिला के कई रंग
Wednesday, October 8, 2008
मानिला अर्थात् मन को मोहने वाली
खै़र हम यानी मैं और मेरे मामा की सुपुत्री हेमा शाम को चार बजे घर से रवाना हो गए ताकि ६ बजे वाली सीधी बस ले सके। गढ़मुक्तेश्वर, हापुड़, मुरादाबाद गजरौला काशीपुर रामनगर तक के बड़े स्टॉप हैं। बस रात्रि के भोजन के लिए गजरौला के मेला होटल में रूकती है। उसके बार काशीपुर की ओर रवाना होती है। काशीपुर में बस डीजल भरवाने और बस की तकनीकी जांच के लिए रूकती हैं। काशीपुर से लगभग दो घंटे के सफर के बाद हम रामनगर पहँचे। रामनगर उत्तराखण्ड का वह हिस्सा है जिसे भाबर के नाम से जाना जाता है (भूगोल के अध्येता बेहतर जानते होंगे )। काफी उपजाऊ इस इलाके में आधुनिक कृषि पद्धतियों से काम लिया जाता है। बैलों के लिए यहाँ सालाना हाट लगते हैं जिसमें दूरदराज के पहाड़ी इलाकों से लोग मीलों पैदल चल कर अपने पशुओं के व्यापार के लिए आते हैं।
bas ने तकरीबन आधे घंटे का ब्रेक लिया और फिर वह पहाड़ों के बीच दाखिल होना शुरू कर देती है। सितम्बर के आखिरी हफ्ते की इस यात्रा के दौराना चुनावी सरगर्मियाँ भी जोरों पर थी। उम्मीदवारों ने दिल्ली में बसे पहाड़ी प्रवासियों के लिए गाड़ियाँ आरक्षित कर रखी थीं । २० सितंबर २००८ शाम को निकले हुए हम सुबह ६ बजे मानिला के बस स्टॉप रथखाल पर पहुँचे। रथखाल मेरे ननिहाल और ददिहाल का उभयनिष्ठ बाजार है। वहाँ २ घंटे पैदल मार्च करते हुए हम लोग मामा के गाँव सीमा पहँचे।
पंचायती राज के चुनावों के लिए तीन पदो कें लिए मतदान होने थे- बीडीसी मेंबर, ग्राम प्रधान और उपप्रधान । इन चुनावों में एक बात यह देखने को मिली की स्थानीय निर्दलीय उम्मीदवारों के अलावा बीजेपी और कांग्रेस के टिकट पर खड़े हुए उम्मीदवारों को भी अपने स्वनिर्मित चुनाव चिन्ह क्रमश: कलम दवात और उगता हुआ सूरज पर चुनाव में खड़े थे। चूंकि मामा भी चुनाव में खड़े थे इसलिए उनके घर पर पार्टी के कार्यकर्ताओं का आना जाना लगा हुआ था और घर की दीवारें गाँव के सेन्ट्रल लोकेशन में होने की वजह से सार्वजनिक इश्तहार पट चुकी थी । रात को वहीँ आराम किया । दूसरे दिन मम्मी के चाचा-चाची के घर निकासण पहँचें। उनका गाँव से अलग अकेला घर है । उसी sham को वापिस सीमा आ गए।
दूसरे दिन चुनाव था। दिल्ली में चुनाव के प्रति जितनी उदासीनता होती है, उतनी ही वहाँ उत्सुकता और मेले-सा माहौल रहता है। औरतें पूरी तरह बन-ठन कर परंपरागत आभुषरों पहनकर अपना वोट डालने जाती है। हेमा को अपना वोट डालना था । पोलिंग बूथ रथखाल के रास्ते में पड़ने वाले स्कूल जगतुखाल में था। हमारी योजना हेमा के वोट डालने के बाद मेरे गाँव तोलबुधानी जाने की थी। । ११ बजे हम पोलिंग बूथ के लिए रवाना हुए। सुबह हमने पार्टी के कार्यकताओं के लिए नाश्ता बनाकर भिजवाया था जिसे वो लंच में खा रहे थे । स्कूल मुख्य पगडंडी से ऊपर है। इसलिए स्कूल के ओर जाने वाली पगडंडी के रास्ते में उम्मीदवारों ने अपने स्टॉल लगा रखे थे और वो स्टॉल एक दरी बिछाकर मतदाता सूची में मिलाने करने के बहाने वोटरों का ब्रेनवॉश करने के लिए था। कोई कोई तो वैसे ही पहाड़ की घसियाली जमीन पर बैठे हुए थे। हेमा अपना वोट डालने के लिए गई और मैं पोलिगं बूथ से २५-३० कदम नीचे ढलान पर उसका इंतजार कर रही थी। बीच में लंच ब्रेक की वजह से हमें रूकना पड़ा । २ हमें वहीं बज गए थे।
वोट डालने के बाद हम रथखाल गए । वहाँ सर्विस रोड पर दिल्ली के वोटरों के कन्वेंस जो प्रत्याशियों द्वारा प्रायोजित थे, कतार में खड़े थे। जोरों की भूख भी लग रही थी। पापा ने दिल्ली से दादी को फोन कर दिया था कि हम आज अपने घर आएंगें। सोचा अगर रथखाल में किसी दुकान पर पेट पूजा करने के लिए ठहरे तो दादी के पास पहँचते रात हो जाएगी। एक बिस्किट पैकेट लिया और रास्ते में खाते-खाते रथखाल से प्र्रस्थान किया। रास्ते में बारिश भी शुरू हो गई, पर हम चलते गए। बारिश मूसलाधार न होकर केवल फुहार थी, इसलिए ज्यादा खीझ नहीं हुई। मौसम तो बरसात की असर की वजह से खुशगवार था ही, गर्मियों में पेड़ो से कटाई से नंगे दिखने वाले पहाड़ भी घास और स्थानीय वनस्पतियों की बरसाती पैदावार से हरे-भरे हो गए थें। आलम यह था कि गावों और खेतों के बीच के रास्ते भी टूट रहे थे और पगडंडियाँ भी घास उगने की वजह से खोने - सी लगी थी। इस बरसाती घास को काटकर पुआल बना लिए जाते हैं और उनका जानवरों के लिए बफर स्टॉक रख लेते हैं।
४ बजे दादी के घर पहँचे। वहाँ एक किलोमीटर नीचे राधार गाँव है..... और उससे आधा किमी नीचे बुआंडी को माध्यमिक विद्यालय ... मेरे गाँव पोलिंग बूथ वह स्कूल था। खैर हम ५ बजे वहाँ भी पहँुच गए। बस का इस्तेमाल तो बस दिल्ली से रथखाल आने-जाने में किया। बाकी रास्ते तो पैरों से ही नापने पड़े। ददिहाल भी रथखाल से पाँच मील की उतराई पर है। ददिहाल-रथखाल-ननिहाल एक पहाड़ का समबाहु त्रिभुज बनाते हैं, जिसके शीर्ष पर रथखाल है। इस त्रिभुज की कल्पना करने पर चढाई़-उतराई के समीकरणों का अंदाजा हो जाएगा ।
दूसरी सुबह हम मानिला मंदिर के लिए रवाना हुए । मेरी मानिला डानी तेरी बलाई ल्यूला, तु भगवती छै भवानी तेरी बलाई ल्यूला (मेरी मानिला के ऊँचाई पर बसे घने जंगल मै तुम्हारी बलाएँ लेता हूँ ) जैसा गीत हो देवभूमि के इस प्रदेश में प्रकृति-तीर्थ के द्वय को बखूबी समझा देता है। मानिला देवदार, फर, स्प्रूस (चीड़ की बात नहीं करूँगी...वह पहाड़ यूकेलिप्टस है) के शंकुल वृक्षों से ढका प्रदेश है। यहाँ भगवती के दो मंदिर हैं- तल्ला (नीचाई) मानिला और मल्ला ( ऊँचाई) मानिला। जनश्रुति है कि पहले केवल तल्ला मानिला का ही मंदिर था। गढ़वाल से कुछ चोर मंदिर में देवी की मूर्ति को चुराने के लिए आए। उनसे पूरी मूर्ति उठाई नहीं गई । वो मूर्ति का केवल एक हाथ काटकर ले जाने लगे। कहते हैं उस वक्त देवी ने चिल्लाई भी थी। उसकी चीख को लोगों ने भी सुना था। रास्ते देवी का कटा हुआ हाथ ले जाते समय इतना भारी हो गया कि उन चोरों ने विश्राम करने के लिए उसे जमीन पर रख दिया। उसके बाद वह हाथ वहीं जम गया । कालांतर में वहाँ पर मल्ला मानिला का मंदिर बनाया गया। तल्ला मानिला के मंदिर में देवी की सप्तभुजा वाली प्रतिमा है और मल्ला मानिला के मंदिर में हाथ की प्रस्तर प्रतिकृति।
मानिला में सरकारी डाक बंगले और गेस्टहाउस भी हैं। विदेशी पर्यटकों की भी आवाजाही रहती है। मल्ला मानिला के परिसर में एक संस्कृत विद्यालय और दूरदर्शन का रिले सेंटर है। रथखाल से आगे तल्ला मानिला का मंदिर का बस स्टॉप है और वहीं एक रास्ता मानिला इंटर कालेज और महाविद्यालय की ओर जाता है। पयर्टन मानचित्र पर मानिला की उपस्थिति दर्ज हो चुकी है। राज्य सरकार ने पर्यटन विकास की योजनाओं को लागू करने के लिए अनुदान भी आवंटित किया है। कई गावों में बिजली नहीं पहुँची है और जहाँ पहुँची है वहाँ मीटर उपभोक्ताओं की संख्या कम है। सौभाग्य से ननिहाल और ददिहाल में बिजली है। दोनों मंदिरों के दर्शन करने के बाद वापिस मामा के घर आए।
Monday, October 6, 2008
चुनावी बहस - लोकतंत्र की खास पहचान
Friday, October 03, 2008 09:19 [IST]
ऐसी बहस अमेरिकी लोकतंत्र की खास पहचान है, जो उम्मीदवारों को एक-दूसरे के व्यक्तित्व और नीतिगत मसलों को लेकर आमने-सामने चुनौती देने और मुकाबला करने का अवसर प्रदान करती है।
यह बहस चुनावी मुहिम का अहम मुकाम होती है, जहां ग्लेडिएटर जैसा टेलीविजन एरीना देश को उम्मीदवारों को तौलने का मौका देता है। तो यदि अमेरिका ऐसा कर सकता है तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र यानी हमारे देश में ऐसी ही बहस क्यों नहीं हो सकती, वह भी विशेषकर चौबीसों घंटे चलने वाले खबरिया चैनलों के इस दौर में, जो स्टूडियो में बहस के जरिए फलते-फूलते हैं?
वर्ष 2004 के आम चुनाव से कुछ महीने पहले मैंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी और विपक्ष की नेता सोनिया गांधी को पत्र लिखकर 'बिग फाइट' के लिए आमंत्रित किया था। हमारा प्रयास इसे सबसे जोरदार बहस बनाने का था, हमारी इलेक्शन प्रोग्रामिंग का ग्रांड फिनाले, लेकिन दोनों नेताओं ने इसमें अपनी असमर्थता जता दी और हमें कपिल सिब्बल और अरुण जेटली को बुलाना पड़ा। हालांकि दोनों के बीच अच्छी बहस हुई और उन्होंने अपनी-अपनी बात दमदार तरीके से रखी, लेकिन फिर भी जैसा हम चाह रहे थे, वैसा नहीं हो पाया।
संभवत: हमने कुछ ज्यादा ही उम्मीदें पाल ली थीं। वाजपेयी टेलीविजन के दौर से पहले के राजनेता हैं, भले ही वे अपने जबर्दस्त उद्बोधनों या भाषणों के जरिए संसद या रामलीला मैदान में तालियां बटोर लें, लेकिन बात के बीच-बीच में उनकी लंबी खामोशी टेलीविजन के हिसाब से सूट नहीं करती। जहां तक श्रीमती गांधी का सवाल है तो उन्हें राजनीति में आए दस साल से ज्यादा वक्त हो चुका है लेकिन उन्होंने अब तक बमुश्किल तीन-चार ही साक्षात्कार दिए होंगे, इनमें से ज्यादातर सावधानीपूवक तैयार किए गए और ज्यादातर उनसे सीधे-सादे और रूटीन सवाल ही पूछे गए।
प्रधानमंत्री बनने की चाहत रखने वाले हमारे दूसरे नेता भी अलग नहीं हैं। मिसाल के तौर पर मायावती गंभीर परिचर्चाओं में खुद को व्यक्त करने के बजाय प्रेस कॉन्फ्रेंसों में पत्रकारों पर भड़कने को तरजीह देती हैं। लालकृष्ण आडवाणी, संभवत: अपनी पत्रकारिता की पृष्ठभूमि की वजह से हमेशा मुश्किल सवालों का जवाब देना चाहते हैं, लेकिन बहस के प्रारूप में नहीं।
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को कैमरे पर आने में संकोच होता है। उन्हें इस पद पर रहते हुए पांच साल होने जा रहे हैं, लेकिन उन्होंने वास्तव में एक भी उपयुक्त साक्षात्कार नहीं दिया। कांग्रेस के 'युवराज' राहुल गांधी तो और भी ज्यादा संकोची हैं। अपनी शादी की योजना के संबंध में दिए गए बयान या पोटा जैसे कानून पर उनके वक्तव्य भले ही सुर्खियां बटोर लें, लेकिन वे कदाचित ही विशुद्ध राजनीतिक संवाद का विकल्प हो सकते हैं।
आडवाणी की तरह नरेंद्र मोदी भी साक्षात्कार देने में माहिर हैं, लेकिन वे भी ऐसे सवाल सुनना पसंद नहीं करते, जिनसे उन्हें परेशानी हो। टेलीविजन पर शरद पवार ऐसे बोलते हैं कि अनिद्रा की बीमारी से ग्रसित लोगों को भी नींद आ जाए, जबकि मुलायम सिंह तो कुछ शब्दों को ऐसे बोलते हैं कि उसकी तुलना बुदबुदाने वाले एच.डी. देवेगौड़ा से ही की जा सकती है। लालू यादव ही ऐसे नेता हैं कि जिनके बारे में कहा जा सकता है वे स्वाभाविक तौर पर टीवी के लिए ही बने हैं। हालांकि अब उनकी वह चुटीली और विनोदप्रिय शैली भी कुछ मंद पड़ती जा रही है, जिसने कभी उन्हें 'सितारा' हैसियत दिलाई थी।
आखिर क्यों हमारे शीर्ष स्तर के नेता टीवी पर सवाल-जवाब के विचार से ही असहज हो जाते हैं? कुछ हद तक यह हमारे सामंती और अपारदर्शी राजनीतिक तंत्र को प्रतिबिंबित करता है जो खुले मंच पर नीतिगत मसलों पर बोलना जरूरी नहीं समझता। दुर्भाग्य से अमेरिका से उलट भारतीय संदर्भ में राजनीतिक तौर पर जीतने लायक चुनावी मुहिम का टेलीविजन पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने से ज्यादा संबंध नहीं है। जहां जाति और वंश के आधार पर चुनावी हार-जीत का फैसला होता हो, वहां संप्रेषण कौशल ज्यादा मायने नहीं रखता। हमारा राजनीतिक तंत्र उस तरह के संप्रेषण कौशल की मांग नहीं करता, जिसने ओबामा को राष्ट्रपति की होड़ में सबसे आगे कर दिया।
इसके विपरीत मायावती ने पिछले साल उत्तरप्रदेश विधानसभा की अपनी चुनावी मुहिम के दौरान मीडिया और विशेषकर टेलीविजन से दूरी बनाए रखी और चुनावों में जबर्दस्त जीत हासिल की। उनके परंपरागत वोट बैंक को चुनाव में बसपा के नीले हाथी पर मोहर लगाने से पहले अपनी 'बहनजी' को टीवी पर देखने की जरूरत नहीं थी।
एक तरह से भारतीय चुनावी राजनीति ने टेलीविजन की सीमित ताकत को परिभाषित किया है। जहां कोई भावपूर्ण टीवी बहस शहरी मध्य-वर्ग के दर्शकों के एक वर्ग को उत्तेजित कर सकती है, लेकिन यह ज्यादातर मतदाताओं तक नहीं पहुंच सकती, जिनमें से कई लोग राजनीतिक तर्क-वितर्क सुनने के बजाय अपना पसंदीदा सीरियल देखेंगे।
इसके अलावा, इस बहुभाषी देश में टेलीविजन पर जबर्दस्त तरीके से मौजूदगी दर्ज कराकर राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव छोड़ना मुश्किल है। मिसाल के तौर पर क्या त्रिचि में कोई तमिलभाषी दर्शक वास्तव में लालू यादव के साथ भी खुद को जोड़ सकता है? जैसे टेलीविजन खुद स्थानीय हो गया है, इसके कंटेंट पर भी ज्यादातर स्थानीयता हावी है, इसलिए टेलीविजन के जरिए 'राष्ट्रीय' नेता के उभरने की ज्यादा गुंजाइश नहीं होती।
इसके बावजूद भले ही टेलीविजन साउंटबाइट्स आपको वोट न दिला सकें, लेकिन वे गपशप करने वाले में लोगों की राय को कुछ हद तक प्रभावित जरूर कर सकता है। मिसाल के तौर पर आतंकवाद के संबंध में ज्यादातर बहस टेलीविजन स्टूडियोज में ही हुई, जहां विपक्ष की 'पोटा वापस लाओ' की मुहिम ने संप्रग सरकार को बचाव की मुद्रा में ला दिया। बहरहाल, भविष्य पर निगाह रखने वाले राजनेताओं को टेलीविजन क्षमताओं को संवारना होगा। यह भले ही उन्हें मास लीडर न बनाए, लेकिन उन्हें ओपिनियन लीडर बनने में जरूर मददगार होगी।
Tuesday, September 16, 2008
बस- सवारी-ट्रैफिक पुलिस और मोबाइल महिमा
चार्टेड वाले के पास तीन चार्टेड हैं… तीनों बसों के ड्राईवरों के पास मोबाइल भी हैं…जब कभी ट्रैफिक जाम होता है तो पहले चक्कर लगाने वाली बस पीछे आ रही बसों को रास्ता बदलने की सूचना दे देती हैं।
इसी तरह किसी सवारी को बसों का टाइम टेबल और समय में हेरा-फेरी का पता करना हो तो भी ड्राईवर के मोबाइल की घंटी बजती है... पर मोबाइल सबसे जायदा कारगर होता है…ट्रैफिक पुलिस आगाह करने के लिए…वैसे तो हर चौक और लाल बत्ती पर ट्रैफिक वालों की गरम की जाती है…पर जैसे सेण्टर में ओपोसिशन को रूलिंग पार्टी की हर बात में मीनमेख निकलने की आदत से अपने विपक्षी धर्म को बचाए रखती है ...उसी तरह पुलिस वाले नियमित रूप से हफ्ता लेने पर भी अपनी राह चलते वाहनों को डंडा दिखाने से बाज नही आते....उनकी इसी वक्त-बेवक्त सीटी बजाने की आदत की शिकार बस वाले भी ट्रैफिक पुलिस से सामना होते हे पीछे से आ रही बसों को संभलकर चलने का निर्देश दे देते हैं....और कंडक्टर को गेट पर लटक रही सवारियों को अन्दर करने की हिदायत. इसी लीपा-पोती में बोनट पर बैठी लेडीज सवारियां भी खरी होकर यात्रा करती हैं।
Thursday, September 11, 2008
Energy Synergy Dialogue on “Delivering Sustainable Energy Security to Rural India”
Mr. J. K. Mehta, GM, WEC-IMC, Mr. R.S. Sharma, CMD, NTPC, Dr. S. K. Chopra, Advisor (Former Spl. Secy.), MNRE, Prof. M. S. Swaminathan, MP (Rajya Sabha) & Chairman of M. S. Swaminathan Research Foundation and Mr. Anil Razdan, Secy., Ministry of Power (Second Left to Fourth Right) with energy professional on the occasion of 5th Energy Synergy Dialouge of WEC-IMC
In his welcome address Mr. R. S. Sharma shared that over 2 billion people around the world are without access to modern cooking fuels and 1.7 billion people are without access to electricity and India alone accounts for 40% of this population. He said that while the country is surging ahead economically at a growth rate of 8-9% of GDP, the need of the day is to ensure that the benefits trickle down to economically underprivileged section of the society.
Dr. S. K Chopra in his impressive presentation, emphasized that any endeavor to rural energy development should be pro-poor, pro-women and pro-nature. Food security, nutrition security and ecology security require to be closely linked with Energy Security. Highlighting these linkages, he expressed that even the fuel to cook the food is a greater constraint then the food itself. Agriculture the largest producer of bio-mass, itself needs energy for food production, harvesting and transportation.
Mr. Anil Razdan recommended integration of Rural & Urban Energy programmes .His prescription was that non conventional energy sources should not be limited to rural areas only but the lead for demonstration of usage of non-conventional energy sources should be taken up by urban megacities. He advocated a power sector wherein freedom and facility to use electricity is provided to the people.
Chairing the session, the Living Legend & Father of Economic Ecology, Pro. M. S. Swaminathan, made three keypoints ; first, that Energy Security has correlation with food Security; costs of food goes up with the cost of energy. Second, that local people need to empowered for rural energy development. Third is that the democratic setup of Gram Panchayat can be used to facilitate its organization, management and administration. He suggested that we must launch community rural energy manager in villages. Appreciating the initiative of talk show by WEC-IMC, he quoted that synergy in energy use is the pathway to sustainable energy security and wished a continued success to Indian Member Committee in its effort to take energy to every home and heart in the country.
Followed by a lively discussion amongst the participants on the theme, the session eventually ended with the conclusion that “Take power to the people, they will do the rest.”
Friday, August 22, 2008
बहसबाज हिन्दुस्तानी
"We Indians are very argumentative…thus a USA professor say half of our times goes to pacify the Indian student and half of that goes in the endeavor to make Chinese students to speak out," T. N. Takur revealed.
An audience replied, “See the Project of DMRC, the engineer Sridharan has done great job...even he must be awarded from Bharat Ratna. So people, who say that target has not been fulfilled, must take inspiration from him!
Mr. Prasad burst out….we just have been talking from so many years, in reality nothing has been done. The problem is that when we are in a position to do some efforts, we don't..so it's the matter of political will... after retirement we start blaming to each other. China has communism, we have democracy, where we have to listen all the channels...that’s why Subhash Chadra Bose recommended that the nation has to be put under army rule at least for10 years to let the development happen smoothly. Somebody ridiculed from behind, “ Mushrraf has resigned....call him to rule on India. Then Mr. Bami replied that we had achieved our target during 7th Plan with 98% result.
Mr. Prasad proceeded, “Sridharan is good friend of mine. DMRC has single window clearance of project and Sridharn was allowed to take 10000 tenders a day at his levels, but Energy sector doesn't have this kind of delegation of power to finish at once…thus unable to attract private investor/ players.
Eventually the debate was concluded by this conclusion that select the right people for right job and empower them.
Wednesday, August 20, 2008
हिन्दी दलित साहित्य में स्त्री सरोकार
दलित स्त्री की आवाज पुरुषों द्वारा सृजित दलित साहित्य में कितना प्रतिनिधित्व पाती है और उनका चित्रांकन किस तरह से होता है, यह सवाल काबिलेगौर है? स्त्री उसमें भोक्ता और करता के रूपों में सवर्ण और अगरी और पिछ्री जातियों के द्वंदों में किस तरह आकर लेते हुए पाती है? उनका कैरेक्टर स्केच या चरित्र चित्रण सक्रिय और अक्रिय , प्रत्यक्ष और प्रछन्न तरीकों से दलित महिला मूल भावों , सम्वेदनाओं और कथ्य को कैसे प्रभावित करता है? ‘गेहूं के साथ घुन भी पिसता है’ की तर्ज़ पर सवर्ण महिलाएं ब्राह्मणवादी व्यवस्था का मोहरा बन पितृसत्तात्मक समाज के दमन चक्र में अनजाने तौर पर या जान -बूझकर शामिल होती है, के मसले से आगे एक gender के प्रस्तुतीकरण के ट्रीटमेंट पर दलित स्त्री की पैरोकार लेखिकाओं का आगे आना बेहद जरुरी हो जाता है।
मोटे तौर पर पुरुषों द्वारा सृजित हिन्दी दलित आत्मकथाओं में दलित महिला और सवर्ण महिला के अंतर्संबंधो के साथ ही दो तबको के आपसे व्यवहार कर परिचय निम्न रूपों में मिलता है :-
१- दलित महिला
>> दलित होने पर भी आधुनिक समाज व्यवस्था में सम्मान पाने की अभिलाषा के चलते जाति छुपाती महिला जैसे वाल्मिकी की भतीजी जो अपने कॉलेज में उन्हें पहचाने से भी इंकार कर देती है, इस डर से के कहीं उसकी जाति का पता लोगों को न चल जाए।
>>“सलाम” की प्रथा की शिकार दलित नव–वधुएं जिन्हें विवाह के उपरांत अपने पति के साथ ऊँची जातियों के दरवाजों पर सजदा करना परता है।
>>‘जूठन’ देने पर शादी के माहौल में अगरी जातियों के पुरुषों को लतारती वाल्मीकि की स्वाभिमानी माता।
>>चमरा उतारने जैसे तथाकथित जरायम पेशे से अपने देवर को दूर रखकर इक आशा का संचार करने वाली वाल्मीकि की भाभी ।
२- सवर्ण महिला
>>सवर्ण महिला ठकुराइन भगवंती जो अपनी यौन-क्षुधा की तृप्ति के लिए ‘तिरस्कृत’ में सूरजपाल सिंह चौहान के चाचा गुलफाम का साहचर्य चाहती है, पर और दलितों से नाक-भों सिकोरती है।
>>सूर्या संस्था की संचालिका आशा रानी वोहरा जैसे औरते जो दलित साहित्य को सिरे से नकार देती हैं जिसके जवाब में चौहान संत साहित्य, ब्रह्मण साहित्य , ललित साहित्य जैसे श्रेणियां गिनाते हैं।
>>सवर्ण पुरुषों की सामंती मानसिकता की दलित स्त्रियाँ महिला महिला दलित महिलाओं की तुलना में स्वयम को शीलवती और सच्चरित्र समझकर दलित औरतों का मखौल उरती हैं।
>>सवर्ण प्रेमिकाएं जैसी की ब्रह्र्मन सविता जो ओमप्रकाश वाल्मीकि से प्रेम करती है, परन्तु उनकी जाति का खुलासा होने पर अपने प्रेम सम्बन्ध का अंत कर जातीय दंभ का हुंकारा भरती है।
>>पुत्री का जन्म यानी जीवन भर काम में , grihasthiखटती , दुःख: और कलह , शोषण और यौन प्रतारणा की शिकार ज़िन्दगी
>>सवर्ण दलित महिलाओं को रखैल बना सकते है, प्रेमिका या पत्नी बनाकर विवाह संस्था के मद्देनज़र अपना dabdaba कायम रख सकते हैं, पर दलितों के घर किसी तरह का रोटी-बेटी का कोई रिश्ता नही रखते।
Monday, August 18, 2008
India Revisited
1971: Indira Gandhi reviews the troops, in the context of militaryand diplomatic preparations for the Bangladesh War.